Saturday 24 February 2018

Ayurved amrit Punarjanm-----

 आत्मा की सत्ता को नहीं मानने वाली जो श्रुतियां माता- पिता को ही जन्म का कारण मानती हैं उनमें युक्ति विरोध है अर्थात यह दोनों बातें परस्पर -विरोधी होती हैं
यदि माता पिता की ही आत्मा संतान में जाती हो, अर्थात माता पिता की आत्मा के अलावा कोई दूसरी आत्मा नहीं तो प्रश्न होता है कि यह आत्मा कैसे संचार करती है।
sarir ka tyag karti hui aatma

उसका क्या कोई टुकड़ा संतान में जाता है या पूरी ही जाती है। यदि माता पिता की सारी आत्मा संतान में जाती है, तो उनकी मृत्यु हो जानी चाहिए ।

यदि कहे कि कुछ टुकड़ा जाता है तो यह बात समझ में नहीं आती, क्योंकि सूक्ष्म आत्मा के टुकड़े नहीं हो सकते,
यदि कहे कि माता-पिता की बुद्धि और मन संतान में जाकर चेतना उत्पन्न करते हैं ,तो इसमें भी उपर्युक्त दोष आता है ,अर्थात जैसे आत्मा के टुकड़े नहीं हो सकते वैसे ही मन और बुद्धि के भी टुकड़े नहीं हो सकते।

जो केवल माता पिता को ही जन्म का कारण मानते हैं, उनके मतानुसार जीवो की चार प्रकार की योनियां नहीं होनी चाहिए ।
panchamahabhoot

वैदिक विज्ञान में जिवों की 4 योनियां मानी गई है:
1- जरायुज ,
2-अंडज 
3-स्वेदज और
4- उद्भिज ।

माता के गर्भ से पूरे आकार में जन्म लेने वाले जीव जरायुज़ कहलाते हैं। 

अंडे के रूप में जन्म लेने वाले जीव अंडज होते हैं। 

जूं खटमल अनाजों में पैदा होने वाले और वस्तुओं के सड़ने से पैदा होने वाले जीव, तथा इसी प्रकार के अन्य जीव स्वेदज कहे जाते हैं।  
पेड़ पौधे उद्भिज होते हैं।

तात्पर्य यह है कि माता -पिता ही जन्म के कारण है ,तो माता पिता के बिना उत्पन्न होने वाले स्वेदज और उद्भिज जीवो में चेतना नहीं होनी चाहिए परंतु उनमें चेतना होती है, और चेतना आत्मा का स्वभाव है। इसलिए चार प्रकार की योनियां माननी पड़ती हैं ।

छहों धातुओं अर्थात पांच महाभूत (आकाश ,वायु ,अग्नि ,जल ,पृथ्वी) और एक आत्मा इन के लक्षण ही इनके स्वभाव हैं। आकाश का लक्षण है कि उस के टुकड़े नहीं हो सकते।

वायु का लक्षण बहना है ।अग्नि का लक्षण गर्मी है ।
जल का लक्षण द्रवता है। पृथ्वी का लक्षण कठोरता है।
आत्मा का लक्षण चेतना और ज्ञान है, यही इनके स्वभाव हैं।

इनके संयोग और वियोग में कर्म ही कारण है। पांच महाभूतों और आत्मा के संयोग से जन्म होता है और इनके वियोग से मृत्यु हो जाती है। यह संयोग तथा वियोग पुनर्जन्म में किए गए कर्मों के कारण होते हैं। इसलिए पूर्व जन्म को और पूर्व जन्म को मानना चाहिए ।

बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह नास्तिक बुद्धि को छोड़ दें और पुनर्जन्म में किसी तरह का संदेह नहीं करें।

(मनुस्मृति के अनुसार जो मनुष्य वेद को प्रमाण नहीं मानता ईश्वर की सत्ता में और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता उसे नास्तिक कहते हैं। जैन और बौद्ध मत पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं परंतु वेद को और ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते। इसलिए वैदिक (हिंदू) मतावलंबी जैन मत तथा बौद्ध मत को नास्तिक मत कहते हैं।)

अत्रि मुनि के अनुसार प्रत्यक्ष तो बहुत थोडा होता है और अप्रत्यक्ष यानि परोक्ष बहुत होता है। अप्रत्यक्ष को हम आगम ,अनुमान तथा युक्ति आदि प्रमाणो से जानते हैं ।
यदि केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माने ,तो जीन इंद्रियों से हमको प्रत्यक्ष का ज्ञान होता है ,वे स्वयं भी अप्रत्यक्ष हैं ,अर्थात हम उन्हें देख नहीं सकते ।
इस तरह जब इंद्रियों का ही अस्तित्व नहीं, तब प्रत्यक्ष कैसे सिद्ध हो सकता है। प्रत्यक्षवादी के मन में दोष उत्पन्न होता है ,जिससे प्रत्यक्ष कि प्रमाणता नहीं रहती ।

इंद्रिय ज्ञान के लिए हमको अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता है ,इसलिए प्रत्यक्ष के साथ अनुमान को भी प्रमाण मानना पड़ता है ।

रूपों के होते हुए भी उनके अति निकट  होने से ,अथवा अति दूर होने से ,बीच में किसी आवरण पर्दे के आने से , इंद्रियों की दुर्बलता से ,मन कहीं दूसरी जगह लगा होने से, एक समान पदार्थों के एक जगह पड़ा होने से, किसी वस्तु के रूप होने से ,तथा अत्यंत सूक्ष्म होने से प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। 
इसलिए यह कहना उचित नहीं की प्रत्यक्ष ही प्रमाण है ,दूसरा कोई प्रमाण नहीं ।

अति निकट होने के कारण आंख में लगा काजल नहीं दिखता। अति दूर होने से आकाश में उड़ता हुआ पक्षी नजर नहीं आता ।दीवार या पर्दे के पीछे की वस्तु दिखाई नहीं देती। आंखों में दोष होने से दूर की वस्तु नजर नहीं आती। रतौंधी होने से रात में दिखाई नहीं पड़ता। 

मन किसी दूसरी जगह लगा हो तो पास में ढोल का शब्द सुनाई नहीं पड़ता। एक तरह के गेहूं दूसरी तरह के गेहूं में मिला दिया जाए ,तो पता नहीं लगता ।दिन में तारे नजर नहीं आते। अणु- परमाणु और सूक्ष्म रोगाणु आंखों से नहीं देखे जा सकते।
यह सब अप्रत्यक्ष के उदाहरण हैं ।

आत्मा को किसी का बनाया हुआ भी नहीं मान सकते अर्थात या नहीं मान सकते कि आत्मा का निर्माता ईश्वर है। पांच महाभूतों से आत्मा नहीं बनाई जा सकती क्योंकि पांच महाभूत जड़ है और आत्मा अनादि और चेतन है।

कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं हो सकता। प्रत्येक कार्य के तीन कारण होते हैं 

कर्ता ,उपादान तथा निमित। 

कार्य के लिए आवश्यक सामग्री उपादान कारण होती है, साधन निमित्त कारण होते हैं और कार्य को संपन्न करने वाला कर्ता होता है। जड़ पदार्थों के उत्पादन से चेतन पदार्थ नहीं बनाए जा सकते ।

(विज्ञान ने यह तो पता लगा लिया है कि जीव जंतुओं के और पेड़ पौधों के अंग प्रत्यंग किन किन तत्वों से बने हुए होते हैं। परंतु इन तत्वों की सामग्री होते हुए भी विज्ञान घास की एक पत्ती या जीवन का सबसे छोटा कोश (सैल) भी नहीं बना सकता।

इसलिए चेतन की अलग सत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। भौतिक वादी कहते हैं कि सृष्टि के आरंभ में जड़ पदार्थों के संयोग से अकस्मात ही उनमें चेतना उत्पन्न हो गई। मैटर से माइंड बन गया ।अगर ऐसा है तो यह क्रिया समाप्त क्यों हो गई ?अब ऐसा संयोग क्यों नहीं होता ?)।

आकस्मिक संयोग कि इस थ्योरी के बारे में मुनियों ने कहा है कि ऐसा मानने वाले नास्तिक के लिए तो परीक्षा (प्रमाण) रहती है न परीक्ष्य (जिसकी परीक्षा की जाए) ,
ना कर्ता ना कारण न देवता न ऋषि ना कर्म न कर्मों के फल और न आत्मा की सत्ता ।

तात्पर्य यह है कि यदि सब कुछ अचानक संयोग से ही होता है तो फिर किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रहती ।
जब कोई प्रमाण ही नहीं, तब यदृच्छावादी  अर्थात अचानक संयोग मानने वाले की बात भी प्रमाणित नहीं हो सकती ।
इस नास्तिक पक्ष को मानने से बढ़कर कोई पाप नहीं। नास्तिक होना ही सबसे बड़ा पाप है ।

इसका मतलब यह है कि जो मनुष्य ईश्वर, पुनर्जन्म ,कर्म ,विपाक आदि को नहीं मानता वह पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है ।

इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि अधर्म अथवा विपरीत मार्ग में फैली हुई नास्तिक बुद्धि को छोड़कर श्रेष्ठ आस्तिक जनों के बुद्धि रूपी दीपक के प्रकाश में यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें।



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