Monday 26 February 2018

Ayurved amrit Indriyon ke vishay ka gyan----

 चरक संहिता के (इंद्रियोंपक्रमणीयम्)  नामक अध्याय में आत्रेय मुनि की इंद्रिय संबंधी ज्ञान की व्याख्या है।
 पूर्व आचार्यों ने कहा है कि -----
इंद्रिया -5 है, इंद्रियों के द्रव्य 5- है ,इंद्रियों के विषय 5- है, और इंद्रियों के ज्ञान भी पांच हैं।
 मन अतींद्रिय है, इसका दूसरा नाम सत्व है और कुछ लोग इसे चेत भी कहते हैं ।

इस मन का व्यापार- विषयों का चिंतन तथा आत्मा चेतन के अधीन है, और इंद्रियों की चेष्टा अर्थात प्रयत्न विषयों के ज्ञान का कारण है ।
इसका तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य सुख आदि विषयों का चिंतन करता है और साथ में उसकी आत्मा प्रयत्नशील होती है, तब ही मन अपने विषय में प्रवृत्त होता है।

  प्रवृत होने पर वह इंद्रियों का आश्रय होता है ,और इंद्रियां मन से संचालित हुई अपने अपने विषय का ज्ञान प्राप्त करती हैं।
Shant chitta se chintan karta hua sadpurush

 कई शास्त्रकार मन को छठी इंद्रिय मानते हैं, परंतु यह इंद्रियों का संचालन करता है ,और इंद्रियों की तरह प्रत्यक्ष नहीं होता तो इसे अतिंद्रिय कहा गया है ।
यह मन वास्तव में एक ही है, परंतु मनुष्य के चिन्त्य विषय, इंद्रीय विषय तथा संकल्प अलग-अलग होते हैं ,और सत्व रज तथा तम गुणों का संयोग भी अलग होता है। सो एक ही मनुष्य में अनेक प्रकार का दिखता है।

 तात्पर्य यह है कि जब मन धर्म की चिंता करता है, तब धर्म प्रधान ,काम की चिंता करता तब काम प्रधान ,अर्थ की चिंता करता तब अर्थ प्रधान है । मोक्ष की चिंता करता है तब वह मोक्ष प्रधान बन जाता है ।

इसी प्रकार मन कभी सात्विक कभी राजस और कभी तामस बन जाता है ।परंतु जिस मनुष्य के मन में जिस गुण की प्रधानता होती है। उसे उसी गुण वाला कहा जाता है।

 वैसे तो जो मनुष्य के मन में तीनों ही गुणों  का उदय होता रहता है पर किसी समय किसी एक गुण की प्रधानता होती है और दूसरे गुण गौण रहते हैं ।जो मन अधिक समय तक सात्विक गुण से युक्त रहता है उसे सात्विक मन कहते हैं ।
 इसी प्रकार राजस और तामस को भी जानना चाहिए।

उपनिषद में कहा गया है कि मनुष्य का शरीर रथ के समान है जिसमें  आत्मा रूपी रथी बैठा है । इंद्रियां इस रथ के घोड़े हैं और बुद्धि इसका सारथी है। इन घोड़ों की लगाम मन के हाथ में रहती है।  यदि मन चंचल हो तो इंद्रियों पर उसकी लगाम ढीली पड़ जाती है और इंद्रियों के घोड़े बेकाबू हो जाते हैं ।
Chanchal man ,Indreeyon ko vas me karane hetu dhyan mudra me insan

इंद्रियां पांच है पांच इंद्रियों के पांच ही ज्ञान है चक्षुर्बुद्धि श्रोत बुद्धि धाणबुद्धि रस बुद्धि  तथा स्पर्श बुद्धि। ये बुद्धियां इंद्रियों इंद्रियों के विषयों मन तथा आत्मा के संबंध से पैदा होती हैं ।ये बुद्धियां वस्तुओं के क्षणिक तथा निश्चयात्मक स्वरूप को जताने वाली है।

 इसका तात्पर्य है कि जब तक बाहरी इंद्रियों उनके विषयों मन तथा आत्मा का मेल ना हो तब तक मनुष्य को किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ।सब अन्योन्याश्रित है
आत्मा के निकल जाने पर तो मृत्यु ही हो जाती है । 
मन स्थिर ना हो  तो कोई प्रतिती नहीं होती ।इंद्रियां तभी काम करती हैं जब उसके विषय उपस्थित हो ।और इंद्रियां बेकार हो जाए किसी विषय को ग्रहण नहीं कर सकती।

 शुभाशुभ  प्रवृत्तियां---
 मन, मन के विषय ,बुद्धि तथा आत्मा यह अध्यात्म द्रव्य तथा गुणों का संग्रह है। यह द्रव्य तथा गुण शुभ में प्रवृत्ति तथा अशुभ से निवृत्ति के कारण हैं ।दृव्य के आश्रित जो कर्म है वह भी शुभ की प्रवृत्ति और अशुभ की निवृत्ति के कारण होते हैं ,कर्म को क्रिया भी कहते हैं ।

चिंतन ,विचार ,उहा (तर्क- वितर्क) ,ध्येय(ध्यान का विषय) तथा संकल्प ये मन के विषय माने गए हैं।
 कहने का तात्पर्य है कि मन, मन के विषय ,बुद्धि तथा आत्मा यह सब मिलाकर मनुष्य को शुभ अथवा अशुभ कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। तथा अशुभ कर्मों से निवृत्त करते हैं।
 यदि इनका सम्यक ज्ञान हो तो हो तो शुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है। यदि इनका सम्यक ज्ञान न हो तो अशुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है ।
मन और आत्मा अध्यात्म द्रव्य है और मन के विषय तथा बुद्धि आध्यात्मिक गुण हैं। इन्ही के कारण मनुष्य शुभ या अशुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है।

 प्रश्न होता है कि आयुर्वेद के ग्रंथ में तत्वों की विवेचना क्यों की गई है। इसका उत्तर यही है कि भारतीय दर्शन में अध्यात्म को प्रधानता दी गई है ।
शरीर तो धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का साधन है ।इस शरीर का संचालन करने वाला मन है और मन आत्मा के अधीन है ।मन के विकार होने से बुद्धि भ्रष्ट होती है और मनुष्य बुरे कर्म करने लगता है ।
इसका प्रभाव उसके शरीर से अलग अलग नहीं किया जा सकता।

Ayurved amrit shreshth aacharan and sadvrit----

 महर्षि अत्रि अपने शिष्य अग्निवेश को सद्वृत अर्थात श्रेष्ठ आचरण का उपदेश देते हैं।इनके कथनानुसार----

 विद्वान पुरुषों, गो ,ब्राह्मण, गुरु, वेद ,सिद्ध और आचार्य इनकी पूजा करनी चाहिए ।

अग्नि की सेवा करें ।उत्तम औषधियों को धारण करें ।
दोनों समय स्नान तथा संध्या उपासना करें । गुदा आदि मल मार्गों को तथा पावों को स्वच्छ रखें। एक पखवाड़े में कम से कम तीन बार क्षौरकर्म यानी हजामत करना चाहिए।

Suryopasna karta hua insan

ऐसे वस्त्र पहनना चाहिए जो फटे और मैले ना हो ।
सुगंधित फूल धारण करने चाहिए ।

वेशसाधुजनों के समान उत्तम हों। बालों का प्रसाधन करना चाहिए ।सिर और पावों पर तेल मले । कान और 
नाक में भी तेल डालें ।

परस्पर मिलने पर दूसरों के बोलने से पहले सत्कार के वचन बोलने चाहिए ।प्रसन्र मुख रहना चाहिए ।कठिनाई यानी मुसीबत आने पर धीरज रखें ।होम और दान करना चाहिए ।यज्ञ करें दान करें चौराहे को नमस्कार करें ।

कुत्तों ,रोगियों और चांडालों के लिए यज्ञ का शेष भाग रखें ।अतिथियों की पूजा करें ,पितरों को पिंडदान करें, समय पर तथा हितकर वचन बोले ,कम और मीठा बोले ,इंद्रियों को वश में रखे, धर्म के अनुसार आचरण करें ।  श्रेष्ठ कर्म करें परंतु उनके फल की इच्छा नहीं करें
विचारों को पक्का ,भयरहित ,लज्जाशील ,बुद्धिमान ,उत्साही ,क्षमावान तथा आस्तिक होना चाहिए ।बिनय ,बुद्धि ,विद्या ,कुल तथा वय में जो वृद्ध हो तथा सिद्धों ,आचार्यों की उपासना करनी चाहिए ।

छत्र धारण करना चाहिए अर्थात छतरी लेकर चलना चाहिए ।हाथ में डंडा रखना चाहिए ।जूते पहनना चाहिए ।सिर पर पगड़ी पहननी चाहिए ।
रास्ता चलते समय 4 हाथ की दूरी तक निगाह डालनी चाहिए । ऐसे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए जहां  चीथड़े, हड्डियां ,कांटे ,बाल ,भूसे का ढेर, राख ,ठीकरे आदि पड़े हो।

थकावट होने से पहले ही व्यायाम बंद कर देना चाहिए। सारे प्राणियों को अपना बंधु समझना चाहिए ।
क्रुद्ध जनों को अनुनय-विनय से समझाना चाहिए। डरे हुओं को आश्वासन देना चाहिए ।दीनों को सहारा देना चाहिए ।
सत्य प्रतिज्ञ ,शांति युक्त दूसरों के कठोर वचन सहने वाला होना चाहिए ।असहिष्णुता तथा क्रोध को त्यागना चाहिए ।शांत स्वभाव तथा राग ,द्वेष आदि के कारणों को नाश करने वाला होना चाहिए ।

झूठ नहीं बोले ।दूसरों के धन का अपहरण नहीं करें ।पराई स्त्री पर कुदृष्टि ना डालें ।पराए धन का लालच ना करें । पाप नहीं करें ,पाप का अवसर आने पर भी अथवा पापी के संग रह कर भी पाप नहीं करें।

 अपकारक के प्रति भी अपकार नहीं करें अर्थात अपना बुरा करने वाले का भी बुरा नहीं करें। दूसरे लोगों के दोषों का बखान नहीं करें ।किसी की गुप्त बातों को प्रकट  नहीं करें। किसी की निंदा नहीं करें ।
अधार्मिक तथा राजद्रोही लोगों के पास नहीं बैठे ।

पागल पतित, गर्भपात करने वाले नीच दुष्ट जनों के साथ नहीं रहे ।दुष्ट सवारियोंयों पर नहीं बैठे। कठोर और घुटनों से ऊंचे आसन पर बैठे ।ऐसे सैया पर नहीं सोए हैं जिस पर बिस्तर न बिछा हो । सिरहाना ना लगा हो और जो ऊंची नीची हो ।

पहाड़ों की बहुत ऊंची चोटियों पर भ्रमण नहीं करें ।पेड़ों पर नहीं चढ़े ।तेज धार वाले जल में स्नान नहीं करें ।नदियों के किनारों पर नहीं बैठे। जहां आग लग रही हो उसके आस पास नहीं घूमें। अपानवायु (पाद) को ऐसे छोडें की शब्द ना हो, जम्हाई छींक और खांसी आने पर मुंह को हाथ से ढक ले। नाक को नहीं कुरेदे। अंगो से बुरी हरकते नहीं करें ।
Sandhyopasana karta hua insan

अत्यंत चमक वाली ज्योंतियों को तथा अपवित्र वस्तुओं को नहीं देखें। रात के समय मंदिर आदि देवगृहों में ,खुली जगह में चौराहे पर बाग-बगीचों में शमशान मे और वध स्थानों में निवास नहीं करें ।बहुत दिनों से खाली पड़े मकान में और निर्जन वन में अकेला नहीं जाएं। दुराचारी स्त्री दुराचारी मित्रों और नर्तकों को साथ नहीं रखें। 
 श्रेष्ठ जनों का विरोध नहीं करें नीच जनों का संगत नहीं करें ।कुटिल यानी छली  धूर्त और सठ लोगों के साथ नहीं रहे ।दुष्टो का सहारा नहीं ले। ना तो डरे ना किसी को डरावे। साहस यानी बलात्कार नहीं करें। अति अधिक सोना अति अधिक जागना अति अधिक भोजन अत्यधिक पान इनसे बचे ।घुटनों को ऊंचा उठा कर यानी ऊंकडू देर तक न बैठें ।
जब तक थकावट दूर ना हो तब तक स्नान नहीं करें ।सिरको गीला किए बिना और नंगा होकर स्नान नहीं करें। कमर से नीचे के वस्त्र से सिर को नहीं पोछै। जिन वस्त्रों को पहनकर स्नान किया हो उन्हें ही नहीं पहने ।
रत्न घृत पूज्य तथा मंगलकारी दृश्य और पुष्प का स्पर्श किए बिना घर से नहीं निकले।
 घर से निकलते समय मंगलकर पदार्थ दाहिनी ओर तथा अमंगलकार पदार्थ बायीं ओर रहे।

Sunday 25 February 2018

Ayurved amrit Guni vaidya aur vaidya ki gunvatta---

 जीवन तथा आरोग्य की आकांक्षा रखने वाले बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसे वैद्य की दी हुई औषधि को ग्रहण न करें जो औषधियों के प्रयोग व विधि को नहीं जानता हो।

 इंद्र का वज्र सिर पर गिरने से शायद कोई बच जाए किंतु मूर्ख वैद्य की दी हुई औषधि से रोगी नहीं बच सकता, अर्थात ज्यादा रोगी हो सकता है या मर भी सकता है ।
जो वैद्य औषधियों का ग्यान न रखते हुए भी अपने को ज्ञानी समझता है ,और दुखी रोग शय्या पर पड़े तथा 
उस पर श्रद्धा रखने वाले रोगी को बिना समझे बूझे औषधि देता है, ऐसे अधर्मी पापी मृत्यु स्वरूप तथा दूर्मतिसे बातचीत करने वाला भी नरक में जाता है।

तात्पर्य है कि जिस प्रकार की चिकित्सक रोगी परीक्षा करता है उसी प्रकार रोगी को भी चिकित्सक की परीक्षा करनी चाहिए कि वह योग्यता कुशल है।

 आजकल लोग अपने को वैध हकीम तथा डॉ बताकर भोले भाले लोगों को न सिर्फ लूटते हैं बल्कि उन्हें नुकसान भी पहुंचाते हैं। इसीलिए कहा है नीम हकीम खतरा-ए-जान यानी अधकचरा हकीम जानकी के लिए खतरा होता है।

 चिकित्सक बनने की इच्छा रखने वाले मनुष्य बुद्धिमान मनुष्य को अपने गुण रूपी संपत्ति को कायम रखने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए ताकि वह मनुष्यों को प्राण देने वाला बन सके।
 उसी औषधि को अच्छी तरह प्रयुक्त जानना चाहिए, जो आरोग्य देने में समर्थ हो ,

और वैद्य में श्रेष्ठ उसी को जानना चाहिए जो रोगों का निवारण कर सकें ।

चरक संहिता के अनुसार प्रकट होता है कि प्राचीन काल में वैद्यक निस्वार्थ भाव से जन सेवा करने का साधन था, रोगियों से अन्न धन वसूल करने का नहीं। वैद्य किसी से कुछ मांगता नहीं था, संपन्न लोग खुद ही उसकी जीविका का प्रबंध कर देते थे ।

इसके विपरीत आजकल हालत यह है कि नामी वैद्यय या  हकीम या चिकित्सक रोगी को देखने की ही भारी फीस मांगते हैं ।इस मामले में डॉक्टर लोग तो बहुत ही बदनाम है ।सरकारी अस्पतालों के कितने ही सर्जन ऑपरेशन से पहले मरीज से अपनी फीस वसूल लेते हैं।
 चिकित्सा सेवा का नहीं बल्कि कमाई का साधन बन गया है ।रोग की शांति के लिए गुणी वैद्य, गुणवत्तायुक्त द्रव्य ,गुणी परिचारक और गुणवान रोगी ,इन 4 पदों में वैद्य ही प्रधान है क्योंकि वह रोग तथा द्रव्यों को जानने वाला परिचारक को निर्देश देने वाला और रोगी के लिए उपयुक्त औषधियों की व्यवस्था करने वाला होता है।
जिस प्रकार रसोई के बर्तन ईधन आग आदि भोजन को पकाने के कारण होते हैं अथवा जिस प्रकार विजेता के लिए युद्ध में भूमि सेना हमला आज विजय के कारण होते हैं उसी प्रकार वैद्य के लिए गुणकारी द्रव्य गुणकारी परिचारक और गुणवान रोगी चिकित्सा के कारण होते हैं।
इसलिए चिकित्सा में बैद्य ही प्रधान कारण होता है। कुम्हार के बिना मिट्टी ,चाक, डंडा और सूत से घड़ा नहीं बन सकता, उसी प्रकार वैद्य के बिना द्रव्य तथा परिचारक रोग निवारण में समर्थ नहीं हो सकते ।
रोगी ,परिचारक और द्रव्य तीनों के मौजूद रहते हुए भी दारूण रोगों से ग्रस्त लोग गंधर्वपूर्व की तरह नष्ट हो जाते हैं ,या मामूली रोग वाले लोग ज्यादा बीमार हो जाते हैं।

मूर्ख वैद्य ही इसका कारण होते हैं। सो चारों पदों में बैद्य ही प्रधान होता है ।
इसलिए आत्महत्या करना अच्छा है परंतु मूर्ख वैद्य से इलाज कराना अच्छा नहीं।
(सूर्य की किरणों के बर्तन से आकाश में कभी-कभी पृथ्वी के दृश्यों की छाया नजर आती है इसे गंधर्व नगर कहते हैं यह छाया बहुत थोड़े समय दिखाई देती है।)
जिस प्रकार अंधा आदमी डरता हुआ हाथ से या लाठी टटोल टटोल पर चलता है उसी प्रकार मूर्ख वैद्य भी अटकल से इलाज करता है ।तात्पर्य यह है कि रोगी चंगा हो जाए तो यह केवल संयोग की बात होती है।
जिस मनुष्य की आयु अभी पूरी नहीं हुई है या जिसका पहले ठीक तरह इलाज हो चुका है उस रोगी को चंगा करके अनाड़ी वैद्य अभिमान करने लगता है परंतु दूसरे रोगियों को मौत के घाट उतार देता है ।

इसलिए वैद्यकशास्त्र को सम्यक ज्ञान तथा चिकित्सा का अनुभव गुणों से युक्त वैद्य ही प्राणों को देने वाला अर्थात रोगों को मिटाने वाला होता है।
वैद्य की गुणवत्ता -----
रोगों का निदान कारण लक्षण तथा चिकित्सा और रोग को दोबारा उत्पन्न नहीं होने देना इन  गुणों से युक्त श्रेष्ठ वैद्य ही राजाओं का इलाज करने में सक्षम होता है। इसलिए ऐसे वैद्य को राजवैद्य कहते हैं 
शस्त्र शास्त्र तथा जल सदुपयोग अथवा दुरुपयोग के लिए पात्र की अपेक्षा करते हैं इसलिए चिकित्सा में प्रवेश होने से पहले वैद्य को अपनी प्रज्ञा (बुद्धि) को निर्मल कर लेनी चाहिए ।तात्पर्य यह है कि अनाड़ी आदमी को हथियार दे दिया जाए तो वह उसका उचित उपयोग नहीं कर सकता।
मूर्ख आदमी शास्त्र पढ़कर ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।जल अशुद्ध हो तो रोग उत्पन्न करता है। इसके विपरीत शस्त्र संचालन में कुशल मनुष्य शस्त्र से शत्रुओं का नाश कर सकता है ।विद्वान मनुष्य शास्त्रों को पढ़कर ज्ञानवा बन सकता है। शुद्ध जल ही रोगों को नष्ट करता है ।
किसी पागल के हाथ में तलवार दे दी जाए तो वह इधर उधर मारकाट मचा सकता है परंतु भला आदमी शस्त्र का प्रयोग शत्रु के नाश के लिए अथवा आत्मरक्षा के लिए करता है।
इसी प्रकार यदि वैद्य की बुद्धि निर्मल हो तो वह आयुर्वेद के रहस्यों को न जानने के कारण लोगों को हानि पहुंचा सकता है।
विधा (आयुर्वेद का ज्ञान) वितर्क (अनुमान) विज्ञान (कर्म कौशल )स्मृति (अनुभव) तत्परता और क्रिया (उपचार) यह 6 गुण जिस वैद्य में हों वह कभी गलती नहीं कर सकता।
जो वैद्य उपरोक्त विद्या आदि गुणों से युक्त होता है वहीं बैद्य शब्द को सार्थक करता हुआ प्राणियों को सुख देने वाला होता है ।
शास्त्र रोशनी के समान है और बुद्धि उसे देखने वाली आंख के समान है। इसलिए शास्त्र को जानने वाला और निर्मल बुद्धि वाला बैद्य चिकित्सा में कभी अकृत कार्य नहीं होता।
सारांश यह है कि चिकित्सा में औषधि परिचारक तथा रोगी यह तीनों वैद्य के आश्रित होते हैं ।
इसलिए वैद्य को चाहिए कि वह अपने अंदर गुणों की संपदा को बढ़ाने में सदा प्रयत्नशील रहे ।
अत्रि मुनि के मत के अनुसार युक्तिपूर्वक प्रयोग की गई भेषज आरोग्यदान में समर्थ होती है ।
इस मत पर मैत्रेय शंका का प्रकट करते हैं वह इसे सही मानते हैं ।वह कहते हैं कि अक्सर देखने में आता है कि बहुत से रोगी जिन्हें द्रव्य परिचारक आदि साधन उपलब्ध होते हैं जो स्वयं भी समझदार होते हैं और जिनकी कुशल बैद्य भी चिकित्सा करते हैं। उनमें से भी कुछ तो स्वस्थ हो जाते हैं और कुछ ज्यादा बीमार हो जाते हैं या मर जाते हैं।
यदि 4 पादयुक्त चिकित्सा ही आरोग्य प्रदान करने वाली हो तो सब को चंगा हो जाना चाहिए और किसी की मौत नहीं होनी चाहिए ।परंतु ऐसा नहीं होता ।इस से ज्ञात होता है कि आरोग्य लाभ में केवल चतुष्पाद चिकित्सा ही कारण नहीं होता ।
जिस प्रकार गहरे गड्ढे में थोड़ा सा पानी डालने से कोई लाभ नहीं होता उसी प्रकार जो मनुष्य मर रहा हो उसे चिकित्सा से कोई लाभ नहीं होगा। दूसरी ओर यदि किसी तालाब में पानी रहा हो और हम उसमें थोड़ा सा पानी डालकर प्रसन्न होने लगे कि हमने तालाब भर दिया ।
इसी प्रकार यदि कोई रोगी अपने भाग्य से या अन्य किसी कारण से स्वस्थ हो रहा हो और हम समझे कि हमने उसे चिकित्सा से चंगा कर दिया अथवा जैसे बहती हुई नदी में मुट्ठी भर मिट्टी डालकर समझने लगे कि नदी का बहाव रुक जाएगा 
उसी प्रकार मरते हुए मनुष्य के मुंह में औषध डालकर समझने लगे कि वह चंगा हो जाएगा। अथवा जिस प्रकार जहां पहले ही मिट्टी का बड़ा ढेर हो वहां मुट्ठी भर मिट्टी डालने से कोई लाभ नहीं होता उसी प्रकार अन्य कारणों से चंगा होते हुए या मरते हुए रोगी की चिकित्सा करने से कोई लाभ नहीं होता।
इससे यह अभिप्राय निकलता है कि आरोग्य तथा मृत्यु में दै ही कारण है अर्थात मनुष्य के भाग्य में चंगा होना लिखा है तो वह चंगा हो जाएगा और मरना लिखा है तो मर जाएगा।
इसी प्रकार देखने में आता है कि साधनों के ना होने पर भी घबराने वाले रोगी की मूर्ख वैद्य से चिकित्सा कराने पर कोई चंगा हो जाता है और कोई मर जाता है ।अच्छे चिकित्सा से भी कुछ स्वस्थ होते हैं कुछ मरते हैं ।
इसलिए केवल चिकित्सा रोग निवारण में असमर्थ है
शीलवान बुद्धिमान विवेकी तथा आयुर्वेद में पारंगत की द्विजाति पुरुष ही प्राणआचार्य कहलाता है ।प्राणियों को उसकी गुरु के समान पूजा करनी चाहिए।
 आयुर्वेद की शिक्षा समाप्त होने पर वैद्य की दूसरी जाति होती है अर्थात उसका दूसरा जन्म होता है ।इसलिए उसे द्विजाति या द्विज कहा जाता है ।तभी वह वैद्य कहलाता है। पूर्व जन्म से कोई वैद्य नहीं होता ,अर्थात वैद्य का पुत्र होने से ही कोई वैध नहीं हो जाता ।

दीर्घायु के अभिलाषी बुद्धिमानी मनुष्य को प्राणाचार्य के धन की इच्छा नहीं करनी चाहिए ।उसकी निंदा भी नहीं करें और उसे किसी प्रकार की हानि भी न पहुचाए।
 जो मनुष्य वैद्य से चिकित्सा करा कर उसे मान या धन देने की प्रतिज्ञा करता है ,या नहीं भी करता है ,तो भी 
वैद्य के उपकार का बदला नहीं चुकाता, उसका इस जगत में निस्तार नहीं।

 वैद्य को चाहिए कि वह सर्वोत्तम धर्म को इच्छा करता हुआ प्राणी मात्र को अपने पुत्रों की तरह समझें और भरसक प्रयत्न करके उनके रोगों का निवारण करें

धर्मपरायण महर्षियों ने अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करने की इच्छा से धर्मार्थ ही आयुर्वेद को प्रकाशित किया है, अर्थ धन और काम भोग विलास के लिए नहीं।

 जो बैद्य धन और काम के लिए नहीं बल्कि प्राणी मात्र पर दया भाव से चिकित्सा का कार्य करता है वह सब को लांघ जाता है अर्थात सबसे ऊपर हो जाता है ।

जो वैद्य आजीविका के लिए चिकित्सा को बाजार में बेचता है वह सोने के ढेर को छोड़कर धूल का ढेर पाता है।
 जो वैद्य दारुण रोगों से ग्रस्त मरणासन्न प्राणियों को यमराज के चंगुल से छुड़ाकर उसे जीवन दान देता है उस से बढ़कर धर्म तथा अर्थ का दानी इस संसार में कोई नहीं।
 जीवन दान सबसे बड़ा दान है।

 प्राणियों पर दया करना उत्तम धर्म है, यह समझ कर जो बैद्य चिकित्सा का कार्य करता है, उसकी सारी कामनाएं सिद्ध होती हैं और वह अत्यंत सुख भोगता है ।

चरक संहिता के उद्धरणो से चार बातें सामने आती हैं ।आयुर्वेद में पारंगत मनुष्य ही वैध बनने का अधिकारी होता है और वह जीवन दान देता है इसलिए उसे प्राणाचार्य कहा गया है ।

चिकित्सा कराने वाले का कर्तव्य है कि वह चिकित्सक को इस उपकार के बदले अवश्य कुछ दे।

दूसरी तरफ वैद्य चिकित्सा कर्म को अपना पवित्र  कर्रतव्य समझे और इसे दुकानदारी न बनाए।

महर्षियों ने आयुर्वेद की रचना प्राणीमात्र के हित के लिए कि है, धन कमाने का साधन बनाने के लिए नहीं ।

औषधियों का प्रयोग---
 वनों में विचरण करने वाले बकरी पालक, भेड़ पालक ,ग्वाले तथा अन्य बनवासी अपने-अपने क्षेत्रों की औषधियों के नाम और रूप जानते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वैद्यो को वनों में जाकर और इन लोगों से मिलकर औषधियों के नाम तथा रूप जानने चाहिए ।

परंतु औषधियों के केवल नाम और रूप जानने से उनके गुण दोषों का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ।तात्पर्य यह है कि वैद्य को इन के प्रयोग करके पता लगाना चाहिए कि किस औषधि में क्या गुण दोष है ।

जो वैद्य औषधियों के नाम तथा रूप व उनके प्रयोगों को जानता है वही तत्वग्य कहलाता है ।

इन वचनों से प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में वैद्य नई-नई औषधियों का अनुसंधान करते थे ।

जो बैद्य प्रत्येक पुरुष की परीक्षा कर के देश और काल के अनुसार औषधियों के योग को जानता है ,उसे ही उत्तम चिकित्सक मानना चाहिए।
 तात्पर्य है कि चिकित्सा को पहले तो रोगी की परीक्षा करनी चाहिए कि उसे क्या व्याधि है, फिर यह देखना चाहिए कि वह किस स्थान का रहने वाला है ,तथा रितु कौन सी है।
 मनुष्य जिस क्षेत्र में रहता है उसी क्षेत्र में उत्पन्न औषधियां उसके लिए गुणकारी होती है ।
कहा भी गया है -(यस्य देशस्य यो जंतु तस्यं तस्यौषधं हितम्)।
 चिकित्सा के लिए औषधियों का स्थापत्य का निश्चय ऋतु के अनुसार करना चाहिए।

 इसलिए चतुर चिकित्सक को औषधियों के नाम रूप तथा गुणों के अलावा उनका सम्यक प्रयोग भी जानना नितांत आवश्यक है ।