Wednesday 31 January 2018

Ayurved amrit Ritucharya----

आयुर्वेद शास्त्र में ऋतु चर्या संबंधी व्याख्यान इस प्रकार से हैं--- 

जो मनुष्य आहार बिहार संबंधी ऋतु सात्म्य को जानकर उसी के अनुसार व्यवहार करता है, उसके खाए हुए आहार से बल तथा सौंदर्य की वृद्धि होती है।

ऋतु के अनुसार आहार-विहार को ऋतु सात्म्य कहा गया है। ऋतुओं के विभाग में संवत्सर के छह अंग है, अर्थात 1 वर्ष में छह ऋतु होती हैं। इन छह ऋतुओं में से शिशिर वसंत तथा ग्रीष्म ऋतु में सूर्य उत्तरायण होता है। 
इस काल को आदान कॉल कहते हैं। वर्षा शरद तथा हेमंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन होता है इसे विसर्ग काल भी कहते हैं।
( उत्तरायण तथा दक्षिणायन भारतीय ज्योतिष शास्त्र के पारिभाषिक शब्द है और इनका संबंध पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध से है ।उत्तरी गोलार्ध में सूर्य 22 दिसंबर के बाद उत्तरायण  होने लगता है और  21 जून के बाद दक्षिणायन हो जाता है। दक्षिणायन काल में सर्दी का मौसम होता है। जो 22 सितंबर के बाद शुरू होता है।

 इस मौसम में सूर्य दक्षिण पूर्व में उदय होता हुआ और दक्षिण पश्चिम में अस्त होता हुआ प्रतीत होता है ।

उत्तरायण काल की गर्मियों में सूर्य उत्तर पूर्व में उदय होता है ,उत्तर पश्चिम में अस्त होता है ।उत्तरायण काल में दिन बढता जाता है और रात घटती जाती है, इसके विपरीत दक्षिणायन काल में रात बढ़ती जाती है और दिन घटता जाता है। 
21 मार्च और 21 सितंबर को सूर्य सीधा पूर्व में उदय होता है और पश्चिम में अस्त होता है, इसलिए इन दोनों तारीखों को दिन और रात बराबर घंटो के होते हैं।

सूर्य तो स्थिर है और पृथ्वी उसकी परिक्रमा करती है ।सूर्य की उत्तरायण तथा दक्षिणायन प्रतीत होने वाली गति का कारण यह है कि पृथ्वी की धुरी पृथ्वी की कक्षा के तल से समकोण नहीं बनाती बल्कि कुछ तिरछी है।

अगर सीधी होती तो वर्ष के दिन और रात हमेशा बराबर रहते ।तिरछी होने के कारण दक्षिणायन काल में उत्तरी गोलार्ध पर सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती है ,सो उनकी तेजी कम हो जाती है ।

उत्तरायण काल में सूर्य की किरणें कम तिरछी पड़ती हैं , सो उनकी तेजी बढ़ जाती है ।इसी से सर्दी और गर्मी के मौसम होते हैं।
 दक्षिणी गोलार्ध में इससे उल्टा होता है ।यानी जब उत्तरी गोलार्ध में गर्मी पड़ती है, तब दक्षिणी गोलार्ध में सर्दी पड़ती है। और जब उत्तरी गोलार्ध में सर्दी पड़ती है तो दक्षिणी गोलार्ध में गर्मी पड़ती है। 

ऑस्ट्रेलिया दक्षिणी गोलार्द्ध में है। वहा 21 जून को भर सर्दी का मौसम होता है और 21 दिसंबर को भर गर्मी का मौसम होता है ।)
गर्मी और सर्दी -----

दक्षिणायन काल में वायु अत्यंत रूक्ष नहीं होती ,परंतु उत्तरायण काल में अत्यंत रूक्ष होती है ।

मतलब यह है कि दक्षिणायन काल में हवा बहुत खुश्क नहीं होती, उसमें कुछ नमी होती है। उत्तरायण काल में हवा में खुश्की ज्यादा और नमी कम होती है।

दक्षिणायन काल में चंद्रमा पूर्ण बली होता है और पृथ्वी पर अपनी शीतल किरणों को फैलाता हुआ जगत को प्रसन्न करता है ।इसलिए यह काल सौम्य  अर्थात सुंदर और सुखद होता है ।
(शरद पूर्णिमा इसी काल में पड़ती है)।

उत्तरायण काल आग्नेय अर्थात गर्म होता है ।
सूर्य चंद्रमा तथा वायु अपने-अपने काल स्वभाव तथा मार्ग के प्रभाव से वर्षा ऋतु रस दोष तथा देहबल  के कारण माने जाते हैं ।

उत्तरायण काल में सूर्य अपनी किरणों से जगत के स्नेह नमी को खींचता है ।तीव्र और रूक्ष वायु भी जगत के स्नेह को खींचती हुई शिशिर वसंत ग्रीष्म ऋतुऔ मे क्रमशः  अधिक रूक्षता -खुश्की पैदा करती है ।
summer season

यह वायु रूक्ष रसो अर्थात तीखे ,कसैले और कड़वे रसों को बढ़ाती है ।और मनुष्यो को दुर्बल बना देती है ।

क्रमशः कहने का तात्पर्य यह है कि शिशिर से लगा कर ग्रीष्म तक वायु की रूक्षता बढ़ती जाती है और इसी के साथ मनुष्य की दुर्बलता भी बढ़ती जाती है ।

वर्षा शरद तथा हेमंत ऋतुओ में जब सूर्य दक्षिणायन होता है, तब काल ,मार्ग, मेंघवात (मानसून) और वर्षा से इसका प्रताप घट जाता है ,यानी तेजी  कम हो जाती है। इस काल में चंद्रमा पूर्ण बली होता है ।इस प्रकार जब संसार का ताप वर्षा से शांत हो जाता है, तब अम्ल (खट्टा) लवण तथा मधुर रसो की क्रमशः वृद्धि होती है ,तथा मनुष्यों का बल भी इसी क्रम से बढ़ता है ।

उत्तरायण काल के प्रारंभ में वर्षा अर्थात बारिश के मौसम में और दक्षिणायन काल के अंत में अर्थात ग्रीष्म ऋतु में मनुष्यो मे दुर्बलता होती है ।दोनों कालो के बीच में अर्थात शरद और वसंत ऋतुओ में मनुष्य का बल मध्यम रहता है ।

उत्तरायण काल के अंत में अर्थात हेमंत ऋतु में और दक्षिणायन काल के आरंभ में अर्थात शिशिर ऋतु में -मनुष्य का बल रहता है ।शीतकाल में ठंडी हवा लगने से बलशाली पुरुषों की रुकी हुई जठराग्नि प्रबल हो जाती है ,तथा वह अधिक मात्रा में अधिक भारी आहार को पचा सकती है।

इस बली जठराग्नि को यदि उपयुक्त आहार के रूप में ईंधन नहीं मिलता ,तब वह  शरीर के धातु को सुखाने लगती है ,सो शरीर में खुश्की के कारण तथा ठंडी हवा के कारण शीतकाल में वायु का प्रकोप हो जाता है अर्थात वात -रोग हो जाते हैं। 

हेमंत ऋतु---

हेमंत ऋतु में चिकने तथा अम्ल (खट्टे) और लवण रस युक्त नमकीन भोज्य पदार्थों का तथा औदक( मछली आदि जल जीव) और अनूप( चर्बी वाले पशु पक्षियों के मांस का) सेवन करें।
 मदिरा, गन्ने का रस , और शहद का अनुपात हितकर है। अर्थात भोजन के बाद गन्रे का सुरापान  करना चाहिए।
 हेमंत ऋतु में दूध ,गन्ने के रस से बने हुए पदार्थ( गुड़ ,शक्कर आदि) तेल नए चावल का भात तथा प्रतिदिन गर्म पानी का उपयोग करने वाले मनुष्यों की आयु क्षीण नहीं होती। अर्थात वह निरोग रहता है।

हेमंत ऋतु में शरीर पर तेल की मालिश उबटन सिर पर तेल लगाना धूप ,गर्मी और गर्म कमरा उपयुक्त होते हैं।
winter season

 शीतकाल में भारी और गर्म वस्त्र पहने चाहिए। अगर को घिसकर शरीर पर गाढा लेपना चाहिए।
 हेमंत ऋतु में हल्का और बात वर्धक भोजन नहीं करना चाहिए ।ठंडी हवा से बचना चाहिए। भरपेट भोजन करना चाहिए और सत्तू नहीं खाना चाहिए।

साधारण तौर पर हेमन्त तथा शिशिर ऋतुए समान होती हैं ।परंतु शिशिर ऋतु में कुछ विशेषता होती है ।इस ऋतु में खुश्की मानसूनी हवाओं के कारण ठंड ज्यादा पड़ती है। साधारणतय शिशिर में हेमंत जैसा ही आहार-विहार करना चाहिए। परंतु हेमंत की अपेक्षा ऐसे घर में रहना अधिक आवश्यक है जहां ठंडी हवा न पहुंचती हो और गर्म हो।।

शिशिर में चरपरे-तीखे ,कसैले ,बात वर्धक ,हल्के और ठंडे अन्न पान का सेवन नहीं करना चाहिए ।
वसंत ऋतु ---

हेमंत ऋतु में जमा हुआ कफ बसंत ऋतु आने पर सूर्य की गर्मी में पिघल कर शरीर में फैल जाता है ,और रक्त को दूषित कर देता है। इससे ज्वर बुखार आदि कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

 इसलिए बसंत ऋतु में कफ शोधन के लिए वमन आदि पंचकर्म करना चाहिए। वसंत ऋतु में भारी खट्टे चिकनी और मीठे आहार नहीं खाने चाहिए। और दिन में नहीं सोना चाहिए ।

बसंत ऋतु में व्यायाम ,उबटन ,अल्प  भोजन ,अंजन तथा गुनगुने जल से स्नान  हितकर होते हैं।

वसंत ऋतु में चंदन और अगर का लेप करना चाहिए ,जौ और गेहूं के बने पदार्थ खाने चाहिए। लवा और तीतर के मांस  का सेवन करना चाहिए। गन्ने के रस से तैयार की हुई सुरा और शहद से बनाई हुई सुरा का सेवन हितकर है।

बसंत ऋतु में वन -उपवन के यौवन का का अनुभव करें ,और बाग-बगीचों की सैर करें ।बसंत फूलों का मौसम होता है ।
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Tuesday 30 January 2018

Ayurved amrit Vyayam----


शरीर की जो चेष्टा शरीर को स्थिर तथा  बलवान बनाने के लिए की जाती है उसे शारीरिक व्यायाम कहते हैं। 
यह व्यायाम मात्रा -पूर्वक ही करनी चाहिए
मात्रा -पूर्वक का अर्थ यह है कि व्यायाम उतना ही करना चाहिए जितना शरीर के लिए आवश्यक हो

ना तो इतना अधिक होना चाहिए कि थकावट पैदा हो जाए और ना इतना कम होना चाहिए कि उसका कोई प्रभाव ही नहीं पड़े। 

सुश्रुत में व्यायाम की मात्रा के बारे में कहा है कि---व्यायाम आधे बल से करना चाहिए आधे बल का लक्षण यह बताया है कि  ---व्यायाम से पूरे फेफड़ों से श्वास प्रश्वास होने लगे। बगल ,माथा ,नाक और हाथ पैरों के जोड़ों में पसीना आने लगे और मुंह सूखने लगे, तब बलार्ध जानना चाहिए

मात्रा में किए गए व्यायाम से शरीर में हल्कापन और फुर्ती आती है शरीर से श्रम करने की शक्ति और पाचन शक्ति बढ़ती है। शरीर स्थिर होता है। शरीर के दोषों का नाश होता है।

अति व्यायाम से थकावट और सुस्ती आती है रस ,रक्त आदि धातुओं का क्षय होता है ,प्यास लगती है ,दमा ,खांसी ,ज्वर ,उल्टीयों की भी संभावना होती है

व्यायाम हंसना ,बोलना ,घूमना -फिरना ,मैथुन तथा रात का जागना ,इनका  अभ्यास भी हो तो भी बुद्धिमान मनुष्य इनकी मात्रा से अधिक सेवन ना करें।

इन्हें तथा इसी प्रकार के अन्य कार्यों को जो अत्यधिक मात्रा में सेवन करता है ,वह रोगों से ग्रस्त हो जाता है

जैसे सिंह हाथी को मारकर उसे खींचकर दूसरी जगह ले जाना चाहता है, तो मर जाता है

आजकल लोग व्यायाम नहीं करते ।ज्यादा से ज्यादा यह करते हैं कि सुबह 2--4 किलोमीटर घूम आते हैं। 
log tahalate hue

लेकिन आज का जीवन ऐसा व्यस्त बन गया है कि ज्यादातर लोग किसी भी तरह का व्यायाम तो क्या कोई शारीरिक श्रम भी नहीं करते
पिछले जमाने में हर गांव में और हर शहर के हर मोहल्ले में अखाड़े हुआ करते थे ।बच्चे ,किशोर और नौजवान इस अखाड़े में जाते थे और अखाड़े का गुरु उन्हें कसरते करना सिखाता था।
दंड बैठक लगाना, कुश्ती लडना, मुद्गल घुमाना और मलखंभ पर चढ़ना यह कसरते सिखाई भी जाती थी। 

अब तो अखाड़े कहीं नाम मात्र को नजर आते हैं। यही कारण है कि लोगों की रोग अवरोधक शक्ति कम होती जा रही है और बीमारियां फैल रही हैं।
 पहलवान लोग कुश्तियां लडने के लिए जो हजारों दंड बैठक लगाते हैं ,उसे मात्रा का व्यायाम नहीं कह सकते। इतना व्यायाम करने के लिए भरपूर पौष्टिक खुराक की जरूरत होती है ।पहलवानी 1 शौक है।
kasarat karata hua aadami

योगासन भी एक प्रकार का व्यायाम ही होता है ,जो परंपरागत व्यायाम ना कर सके, उनके लिए तो घूमना ही सबसे बढ़िया व्यायाम है।

व्यायाम के बगैर शरीर पुष्ट नहीं होता। ठीक उसी तरह मन के कार्यों को उचित तरह से संपन्न करने के लिए कुछ ना कुछ मानसिक व्यायाम भी आवश्यक है। 

जिस मानव में मानव शरीर की शारीरिक शक्तियों और उसके मन का स्वरूप विकसित न हो तो उसे पूर्ण मनुष्य नहीं कहा जा सकता।

क्या आपके मन में नकारात्मक और  अशालीन विचार उत्पन्न होते हैं ,ऐसे विचारों को दूर करने के लिए अंतःकरण शुद्ध करें ,

मन का एक दोष उसका अत्यधिक चंचल होना है, मन, रंग -बिरंगी तितली की भाति है ,उसका एक फूल से दूसरे फूल तक मंडराना गलत है ।

कोई विशेष विचार भावना को ले लीजिए, वह विचार या भावना बड़े ही सुस्क क्यों न हो, उस पर मन की समग्र वृक्तियों को एकाग्र कर दो, मन कुछ समय उपरांत भागेगा ।

आप संयम द्वारा उसे बाधे रहिए विचलित ना होईये । इस क्रिया को विभिन्न वस्तुओं विचारों और भावनाओं के संदर्भ में लागू करने पर मन में स्थिरता व दृढताआती है। 

मनन ही मन का सर्वश्रेष्ठ  व्यायाम है

आप जिस बात को ले उसी में कुछ समय के लिए जुट जाएं ।आप सारे दिन किस प्रकार के विचारों का चिंतन करते हैं, किन किन विभिन्न बृत्तीयो व  भावनाओं में दिन गुजारते हैं ,अपने मन की दृष्टा बनकर पूर्ण परीक्षा करें ,

इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि मन में शुभ विचारों के उत्पन्न होने पर द्वेष, घृणा आदि  ईर्ष्या नकारात्मक विचार उत्पन्न नहीं होते ,

जो मनुष्य अपने मन में नकारात्मक विचारों को स्थान देता है ,उसके व्यक्तित्व में ही नकारात्मक बातों का समावेश हो जाता है ।

मन को निरोग बनाने के लिए ईश्वर पर आस्था रखें और सकारात्मक विचारों को मन में जगा दे ,

इस बात को महसूस करें कि आपके मन का प्र अणु ईश्वरीय तत्व से अनुप्राणित है। अंतर्मन में ईश्वर की अनुभूति करें ,

सच तो यह है कि मन को एकाग्र किए बगैर किसी प्रकार का अभ्यास उत्तम विधान से संपन्न नहीं होता।

 मन या साधना के समय अगर मन को दृढ़ता से एकाग्र न  किया जाए तो उसका फल प्राप्त ही नहीं होता। 

अशुभ चिंतन मानसिक दुर्बलता का प्रतीक है। इस से मन की कार्य करने वाली शक्तियां विनष्ट होती हैं ।

मनुष्य का उत्साह क्षीण होती  है ,आशावादिता नष्ट होती है और वह कोई भी उत्कृष्ट कार्य संपन्न नहीं कर पाता ।

आयुर्वेद के यह एक मूल सिद्धांत है। 

Monday 29 January 2018

Ayurved amrit Manoveg manovikar Sharirik vego ko rokne se hani----

अत्रि मुनि के कथनानुसार वेगो को रोकने से उत्पन्न जिन रोगों की परिगणना की गई है ,
उन रोगों से बचने के लिए वेगों को नहीं रोकना आवश्यक है
परंतु इन शारीरिक वेगो के अलावा अन्य वेग भी हैं जिनका संबंध मन वचन और कर्म से है। 
आत्रेय के अनुसार अपना हित चाहने वाले मनुष्य को अपने जीवन में इन वेगों को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए
इन वेगो के नाम कुछ इस प्रकार से हैं ----
साहस अर्थात अपनी सामर्थ्य अथवा शक्ति से बाहर के काम करना ,मनुस्मृति तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र में साहस शब्द का प्रयोग लूटपाट ,डाका ,बलात्कार आदि घोर अपराधों के लिए किया गया है ।आजकल इस शब्द का अर्थ हिम्मत या दिलेरी से किया जाता है।

चरक संहिता में प्रयुक्त साहस का अर्थ यह नहीं हो सकता क्योंकि साहस के वे को रोकने का उपदेश है
सो प्रसंग के अनुसार साह शब्द का अर्थ बलात्कार आदि अपराध ही लगाना चाहिए
आगे भी कहा है कि मन वचन तथा शरीर से कोई भी निंदनीय काम नहीं करना चाहिए अर्थात ना तो बुरा सोचना चाहिए ना बुरा कहना चाहिए और ना बुरा करना चाहिए
 और पराए धन की इच्छा आदि मन के वेगो को रोकना चाहिए।
 भय, शोक ,क्रोध लोभ अहंकार निर्लज्जता ईर्ष्या अत्यंत राग तथा अत्यंत द्वेष और पराए धन की इच्छा आदि मनके वेगो को रोकना चाहिए।
 कठोर वाणी ,बहुत बोलना,चुभने वाली बात कहनाझूठ बोलना ,समय के अनुसार वचन नहीं बोलना ,इन वेगों को भी रुकना चाहिए।
 इसके अलावा जो कोई भी शारीरिक कर्म दूसरों को पीड़ा देने वाले हैं ,जैसे पर स्त्री गमन ,चोरी, हिंसा आदि उनके वेगो को भी रोकना चाहिए
इस प्रकार मन वचन तथा कर्म से पाप रहित मनुष्य पुण्यवान होता है तथा सुखी रहता हुआ धर्म ,अर्थ और काम का भोग करता है, तथा इसका संचय करता है
इस संचयका अर्थ यह है कि पाप कर्मों से बचने वाला मनुष्य अपने संचित कर्मों में शुभ कर्मों की वृद्धि करता है। जो अगले जन्मों में फलदायक होते हैं

चरक संहिता के इस प्रकरण से प्रकट होगा कि हमारी प्राचीन आयुर्वेद केवल शारीरिक रोगों के निवारण तथा उनकी चिकित्सा के उपाय नहीं बताता ,बल्कि सदाचार पर भी उतना ही बल देता है
इसका कारण यही है कि आचरण हीन अथवा पापी या अपराधी मनुष्य के मन में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। जो शरीर में रोग के रूप में प्रकट होते हैं।

 बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह मूत्र ,पुरिष, मल, वीर्य ,पाद, उल्टी ,छींक ,डकार ,भूख ,प्यास ,आंसू और नीद तथा थकावट से होने वाली हांफनी को नहीं रोके
मूत्र ----
मूत्र के वेग को रोकने से मूत्राशय ब्लैडर तथा मूत्र इंद्रिय में शूल कष्ट से मूत्र आना ,सिर दर्द ,दर्द से झुक जाना आदि लक्षण प्रकट होते हैं
मल -----
मल के वेग रोकने से पेट में दर्द ,सिर में दर्द, कब्जियत ,पिंडलियों में हड़कल, आफरा, आदि लक्षण प्रकट होते हैं
वीर्य ------
वीर्य का वेग रोकने से मुत्रेन्द्रिय तथा अंडकोषों में तीव्र वेदना, अंगों में पीड़ा और पेशाब बंद होना यह लक्षण उत्पन्न होते हैं
पाद -----
पाद अर्थात गुदा से निकलने वाली वायु का वेग रोकने से मूत्र तथा मल से निकलने में रुकावट, आफरा, सुस्ती, पेट में दर्द तथा पेट के अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।
 उलटी -----
उलटी यानि कै  को रोकने से यह लक्षण उत्पन्न होते हैं---
 खुजली ,गानों पर धब्बे ,शरीर पर चकत्ते और अरुचि, सूजन पीलिया ,ज्वर, त्वचा के रोग ,जि मिचलाना तथा शरीर पर छाले
छींक----
छींक रोकने से सिर में दर्द ,आधासीसी का दर्द ,इंद्रियों की दुर्बलता उत्पन्न होते हैं
डकार -----
डकार  रोकने से हिचकि,खांसी, अरुचि, कपकपी ,छाती में भारीपन के लक्षण उत्पन्न होते हैं
जम्हाइ----
जम्हाइ को रोकने से शरीर में ऐंठन ,शरीर का सिकुड़ना, कंपनी आदि रोग उत्पन्न होते हैं।

jamhai leta hua bachcha

भूख----
 भूख का वेग रोकने से कमजोरी ,शरीर का वर्ण बिगड़ना, अंगों में पीडा, अरुचि और चक्कर आना लक्षण उत्पन्न होते हैं।
प्यास,------
 प्यास को रोकने से कंठ और मुंह का सूखना ,बहरापन, थकावट और छाती में दर्द आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
 आंसू ------
आंसुओं को रोकने से जुकाम ,नेत्र के रोग अरूचि, चक्कर आना आदि लक्षण प्रकट होते हैं
निद्रा -----
अर्थात नींद को रोकने से यह रोग उत्पन्न होते हैं---- जंभाइया आना, अंगों में पीड़ा ,आलस्य झपकियां आना ,सिर के रोग और आंखों में भारीपन।

sota hua aadami

हांफनी----
 परिश्रम से उत्पन्न हांफनी को रोकने से तिल्ली बढ़ना ,हृदय के रोग ,मूर्छा आदि रोग उत्पन्न होते हैं।