Friday 2 February 2018

Ayurved amrit Hitkar Parimit Aahar Vihar -Niyman-----

 बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि यदि वह इस जन्म में तथा परलोक में सुख चाहता है तो हितकर आहार, आचार तथा चेष्टा में प्रयत्नशील रहे ।

तात्पर्य यह है कि सुख चाहने वाले मनुष्य को सदा हितकारी आहार करना चाहिए ,

धर्मानुसार आचार व्यवहार करना चाहिए और उसकी सारी चेष्टाऐ कल्याणकारी होनी चाहिए ।

इस बात को समझाने के लिए चरक संहिता में दही के सेवन का उदाहरण दिया है--------

दही रात में नहीं खाना चाहिए ।घी या खांड़ के बिना, मूंग के काढे के बिना ,शहद के बिना भी नहीं खाना चाहिए ।
गर्म करके नहीं खाना चाहिए ,आंवले के बिना नहीं खाना चाहिए ।

तात्पर्य यह है कि रात में तो दही खाना ही नहीं चाहिए ।दिन में खाना हो तो दही में घी, खाड़, मूंग का शोरबा ,शहद ,आंवला, अपनी प्रकृति के अनुसार मिलाकर खाना चाहिए। 
दही को गर्म नहीं करना चाहिए ।
dahi

रात में दही खाने से अनेक दोष (शरीर विकार) उत्पन्न होते हैं ।दही में घी मिलाने से कफ बढ़ता है और बात का नाश होता है। पित नहीं बढता और आहार जल्दी पक जाता है। खांड या शक्कर मिलाने से प्यास और  गर्मी शांत होती है। 

मूंग की दाल का शोरबा मिलाने से रक्त शुद्ध होता है और बात शांत होता है ।शहद मिलाने से दही स्वादिष्ट हो जाता है । आंवला मिलाने से सारे दोषो का नाश होता है ।गर्म किया हुआ दही रक्त और पित्त को दूषित करता है ।
यदि इन सब बातों का ध्यान न रखकर दही का सेवन किया जाए तो ज्वर रक्तपित्त खुजली पीलिया रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
हमारे देश में दही का सेवन बहुत प्रचलित है और कई रूपों में सेवन किया जाता है ।खाड्या शक्कर मिलाकर दही खाना सबसे ज्यादा व्यवहार में आता है ।
पंजाब में दही की लस्सी पीते हैं ।ब्रजभूमि मे दही चूरा खाते हैं ,गुजरात और महाराष्ट्र में दही का श्रीखंड बनाते हैं, दक्षिण भारत में दही के कई प्रकार के व्यंजन बनते हैं ,परंतु उनमें शक्कर नहीं डाली जाती।


दही के बड़े तो सारे भारत में प्रसिद्ध है। बड़े उड़द, मूंग ,चोले लोबिया आदि की दालों के बनते हैं ।
चरक संहिता मूंग की दाल को स्वस्थ बताती है । दही में घी याआंवला कोई नहीं मिलाता। दही को गर्म भी नहीं किया जाता ,अलबत्ता सब्जियों में डाला जाता है तो गर्म हो जाता है चरक संहिता रात में दही खाने को निषेध करती है, पर इस निषेध को कोई नहीं मानता।

मनुष्य को मात्रा में ही भोजन करना चाहिए अर्थात भोजन का परिमाण उपयुक्त होना चाहिए।
 भोजन की मात्रा पाचन शक्ति के अनुसार होना चाहिए। 
जितने परिमाण में खाया हुआ भोजन मनुष्य की प्रकृति को हानि नहीं पहुंचाता हुआ यथा समय पच जाता है ,
उतना ही खाने वाले के आहार की मात्रा का परिमाण जानना चाहिए। 

यथा समय का तात्पर्य यह है कि जितना समय किसी आहार द्रव्य को पचने में लगना चाहिए उतने ही समय में वह पच जाए।

चावल मूंग तथा कुछ पशु पक्षियों के मांस हल्के होते हैं ,अर्थात जल्दी पच जाते हैं ,फिर भी इन की मात्रा परिमित होती है। 
पीटी के बने पदार्थ, मिठाईयां रबड़ी उड़द की दाल तथा कुछ पशु पक्षियों और मछलियों के मांस भारी होते हैं। इन की मात्रा भी परिमित होती है।

हल्की और भारी पदार्थों की मात्रा परिमिति होती है ,इसका अर्थ यह है कि हलके पदार्थ यदि पेट भर कर खा लिया जाए तो ज्यादा नुकसान नहीं करते, परंतु भारी पदार्थ पेट भर खाने से हानि होती है ।क्योंकि हल्के पदार्थ जल्दी पच जाते हैं ,और भारी पदार्थ बहुत देर में पचते हैं। 
आहार की मात्रा जठराग्नि अर्थात पाचन शक्ति के बल की अपेक्षा रखती है। जिनकी पाचन शक्ति कमजोर हो उन्हें हलका आहार करना चाहिए ,और वह अभी परिमित मात्रा में ।
santulit bhojan

जो परिश्रम करते हैं तथा जिनकी जठराग्नि प्रबल हो वे भारी आहार कर सकते हैं किंतु आवश्यकता से अधिक नहीं ।
आहार की मात्रा अग्निबल तथा आहार द्रव्य ,दोनों की अपेक्षा करती है ।द्रव्य के हल्के पन या भारीपन पर निर्भर होती है ।पेट भरने के लिए आहार की जो मात्रा हो ,उसके बारे में नियम यह है कि भारी पदार्थों को तृप्त के तीन चौथाई भाग या आधे भाग के बराबर खाना चाहिए। 

हलके पदार्थ भी तृप्ति से अधिक नहीं खाने चाहिए, तात्पर्य है कि भारी पदार्थ भर पेट नहीं खानी चाहिए और हल्के पदार्थ भरपेट से ज्यादा नहीं खाने चाहिए।

चरक संहिता मे घी या तेल में तले हुए पदार्थ का उल्लेख नहीं है, यह भी भारी पदार्थ माने जाते हैं ।

मात्रा में खाया हुआ भोजन खाने वाले की प्रकृति को हानि नहीं पहुंचाता, और बल ,वर्ण सुख तथा आरोग्य प्रदान करता है ।

आयुर्वेद का यही सुवचन है ।

बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह उचित परंतु और अहितकर आहार विहार को धीरे-धीरे छोड़ता जाए, और हितकर आहार बिहार का उसी क्रम से सेवन करता जाए।
 उचित आहार बिहार का अर्थ वह आहार-विहार है --जिसके सेवन की आदत पड़ी हुई हो। 
जिस तरह के अहितकर आहार -विहार की आदत पड़ गई हो उसे छोड़ना बहुत मुश्किल होता है ।इसलिए उसे किस तरह छोड़ा जाए और उसकी जगह हितकर आहार -बिहार का सेवन कैसे किया जाए इसका क्रम यहां बताया गया है।
 अहितकर आहार- बिहार के त्याग और हितकर आहार- बिहार के सेवन का पादांसिक क्रम  होता है ।इसके साथ ही बीच बीच में 1 दिन 2 दिन या 3 दिन का व्यवधान रखा जाए।

पादांश का अर्थ कुछ आचार्य चतुर्थांश चौथाई और कुछ षोडषांश  16 वां भाग लगाते हैं ।
इसका मतलब यह है कि जो मनुष्य किसी  अहितकर नुकसानदायक आहार -बिहार का आदी हो चुका हो ,उसे पहले उसका चौथाई भाग या 16 वां भाग छोड़ना चाहिए ।जो चौथाई या 16 मा भाग छोड़ा जाए उसकी जगह उतने ही हितकर आहार -बिहार का सेवन किया जाए ।

उदाहरण के लिए मानो कोई आदमी नशा करने वाली पेय पीता है या नशा करने वाली वस्तु खाता है या दिन में सोता है ,तो उसे शुरू में इनकी मात्राओं में चौथाई कमी करनी चाहिए ।
 नशा करने वाली पेय की जगह कोई हित कर पेय लेना चाहिए ,और अधिक नशा करने वाली वस्तु की जगह कोई कम नशे की चीज लेनी चाहिए ।
नींद कम करने के लिए मनोरंजन का कोई साधन अपनाना चाहिए।

 1 दिन 2 दिन या 3 दिन के व्वयधान की व्याख्या है कि पहले दिन अहितकर आहार -बिहार के पादांस का त्याग कर हितकर आहार -बिहार के पादांश का सेवन करें ,फिर दूसरे दिन नहीं करें ,फिर तीसरे दिन 2 पादांस का त्याग तथ दो पादांश का हित सेवन करें। 

चौथे दिन तीसरे दिन की तरह करें और पांचवें दिन फिर पहले दिन की तरह करें ।इसी क्रम से त्याग और सेवन का क्रम एक दो या 3 दिन के व्यवधान से करता चला जाए जब तक की पूर्ण परिवर्तन न  हो जाए।

इस प्रकार पादांशक क्रम से नष्ट हुए दोष दुबारा उत्पन्न नहीं होते ,परंतु यदि अभ्यस्त आहार -बिहार को एकदम छोड़ दिया जाए तो ,अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

तात्पर्य है कि बुरी लते एक दिन में नहीं छुड़ाए जा सकती। उन्हें धीरे-धीरे छोड़ने की आदत डालनी चाहिए। 

यही कारण है कि जो लोग जोश में आकर नशा करने वाली पेय या बीड़ी सिगरेट वगैरह को छोड़ने का व्रत ले लेते हैं ।उसका पालन नहीं कर सकते ।

लत छुड़ाने के लिए चरकसंहिता में जो क्रमबद्ध उपाय बताया गया है ,वह आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धांतों पर खरा उतरता है ।

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