Monday 26 February 2018

Ayurved amrit Indriyon ke vishay ka gyan----

 चरक संहिता के (इंद्रियोंपक्रमणीयम्)  नामक अध्याय में आत्रेय मुनि की इंद्रिय संबंधी ज्ञान की व्याख्या है।
 पूर्व आचार्यों ने कहा है कि -----
इंद्रिया -5 है, इंद्रियों के द्रव्य 5- है ,इंद्रियों के विषय 5- है, और इंद्रियों के ज्ञान भी पांच हैं।
 मन अतींद्रिय है, इसका दूसरा नाम सत्व है और कुछ लोग इसे चेत भी कहते हैं ।

इस मन का व्यापार- विषयों का चिंतन तथा आत्मा चेतन के अधीन है, और इंद्रियों की चेष्टा अर्थात प्रयत्न विषयों के ज्ञान का कारण है ।
इसका तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य सुख आदि विषयों का चिंतन करता है और साथ में उसकी आत्मा प्रयत्नशील होती है, तब ही मन अपने विषय में प्रवृत्त होता है।

  प्रवृत होने पर वह इंद्रियों का आश्रय होता है ,और इंद्रियां मन से संचालित हुई अपने अपने विषय का ज्ञान प्राप्त करती हैं।
Shant chitta se chintan karta hua sadpurush

 कई शास्त्रकार मन को छठी इंद्रिय मानते हैं, परंतु यह इंद्रियों का संचालन करता है ,और इंद्रियों की तरह प्रत्यक्ष नहीं होता तो इसे अतिंद्रिय कहा गया है ।
यह मन वास्तव में एक ही है, परंतु मनुष्य के चिन्त्य विषय, इंद्रीय विषय तथा संकल्प अलग-अलग होते हैं ,और सत्व रज तथा तम गुणों का संयोग भी अलग होता है। सो एक ही मनुष्य में अनेक प्रकार का दिखता है।

 तात्पर्य यह है कि जब मन धर्म की चिंता करता है, तब धर्म प्रधान ,काम की चिंता करता तब काम प्रधान ,अर्थ की चिंता करता तब अर्थ प्रधान है । मोक्ष की चिंता करता है तब वह मोक्ष प्रधान बन जाता है ।

इसी प्रकार मन कभी सात्विक कभी राजस और कभी तामस बन जाता है ।परंतु जिस मनुष्य के मन में जिस गुण की प्रधानता होती है। उसे उसी गुण वाला कहा जाता है।

 वैसे तो जो मनुष्य के मन में तीनों ही गुणों  का उदय होता रहता है पर किसी समय किसी एक गुण की प्रधानता होती है और दूसरे गुण गौण रहते हैं ।जो मन अधिक समय तक सात्विक गुण से युक्त रहता है उसे सात्विक मन कहते हैं ।
 इसी प्रकार राजस और तामस को भी जानना चाहिए।

उपनिषद में कहा गया है कि मनुष्य का शरीर रथ के समान है जिसमें  आत्मा रूपी रथी बैठा है । इंद्रियां इस रथ के घोड़े हैं और बुद्धि इसका सारथी है। इन घोड़ों की लगाम मन के हाथ में रहती है।  यदि मन चंचल हो तो इंद्रियों पर उसकी लगाम ढीली पड़ जाती है और इंद्रियों के घोड़े बेकाबू हो जाते हैं ।
Chanchal man ,Indreeyon ko vas me karane hetu dhyan mudra me insan

इंद्रियां पांच है पांच इंद्रियों के पांच ही ज्ञान है चक्षुर्बुद्धि श्रोत बुद्धि धाणबुद्धि रस बुद्धि  तथा स्पर्श बुद्धि। ये बुद्धियां इंद्रियों इंद्रियों के विषयों मन तथा आत्मा के संबंध से पैदा होती हैं ।ये बुद्धियां वस्तुओं के क्षणिक तथा निश्चयात्मक स्वरूप को जताने वाली है।

 इसका तात्पर्य है कि जब तक बाहरी इंद्रियों उनके विषयों मन तथा आत्मा का मेल ना हो तब तक मनुष्य को किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ।सब अन्योन्याश्रित है
आत्मा के निकल जाने पर तो मृत्यु ही हो जाती है । 
मन स्थिर ना हो  तो कोई प्रतिती नहीं होती ।इंद्रियां तभी काम करती हैं जब उसके विषय उपस्थित हो ।और इंद्रियां बेकार हो जाए किसी विषय को ग्रहण नहीं कर सकती।

 शुभाशुभ  प्रवृत्तियां---
 मन, मन के विषय ,बुद्धि तथा आत्मा यह अध्यात्म द्रव्य तथा गुणों का संग्रह है। यह द्रव्य तथा गुण शुभ में प्रवृत्ति तथा अशुभ से निवृत्ति के कारण हैं ।दृव्य के आश्रित जो कर्म है वह भी शुभ की प्रवृत्ति और अशुभ की निवृत्ति के कारण होते हैं ,कर्म को क्रिया भी कहते हैं ।

चिंतन ,विचार ,उहा (तर्क- वितर्क) ,ध्येय(ध्यान का विषय) तथा संकल्प ये मन के विषय माने गए हैं।
 कहने का तात्पर्य है कि मन, मन के विषय ,बुद्धि तथा आत्मा यह सब मिलाकर मनुष्य को शुभ अथवा अशुभ कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। तथा अशुभ कर्मों से निवृत्त करते हैं।
 यदि इनका सम्यक ज्ञान हो तो हो तो शुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है। यदि इनका सम्यक ज्ञान न हो तो अशुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है ।
मन और आत्मा अध्यात्म द्रव्य है और मन के विषय तथा बुद्धि आध्यात्मिक गुण हैं। इन्ही के कारण मनुष्य शुभ या अशुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है।

 प्रश्न होता है कि आयुर्वेद के ग्रंथ में तत्वों की विवेचना क्यों की गई है। इसका उत्तर यही है कि भारतीय दर्शन में अध्यात्म को प्रधानता दी गई है ।
शरीर तो धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का साधन है ।इस शरीर का संचालन करने वाला मन है और मन आत्मा के अधीन है ।मन के विकार होने से बुद्धि भ्रष्ट होती है और मनुष्य बुरे कर्म करने लगता है ।
इसका प्रभाव उसके शरीर से अलग अलग नहीं किया जा सकता।

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