Thursday 1 February 2018

Ayurved amrit Pragyaparadh----

 भूत विष आयु अग्नि चोट आदि से मनुष्यों को जो आगंतुक रोग होते हैं, उनका कारण प्रज्ञापराध है ।

प्रज्ञापराध  उन अशुभ कर्मों को कहा गया है ,जिन्हें बुद्धि धैर्य तथा स्मृति से भ्रष्ट हुआ मनुष्य करता है। 

प्रज्ञापराध सब दोषो को बढ़ाता है ।

आधुनिक आयुर्विज्ञान जहां अनेक रोगों की उत्पत्ति शरीर के विकारों से मानता है ,वहां यह भी मानता है कि- अनेक रोग मनुष्य के शरीर पर बाहर से भी आक्रमण करते हैं ।इन्हें संक्रामक यानी छूत के रोग कहा जाता है। 
चोट लगने के भी कुछ बाहरी कारण होते हैं, जैसे आज-कल की सड़क दुर्घटनाएं ।

परंतु हमारा आयुर्वेद बहुत गहराई में जाता है और सभी रोगों को मनुष्य के अशुभ कर्मों का परिणाम मानता है।

( भूत पिशाच आदि प्रेत आत्माओं के आवेश से मनुष्य रोगी हो जाता है ।इस बात को आज वैज्ञानिक नहीं मानते। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण को भी वह अपनी हठधर्मी से उपेक्षा करते हैं। क्योंकि इन बातों को विज्ञान के किसी सिद्धांत या नियम से सिद्ध नहीं किया जा सकताहै।)।

बिष यानी जहरीले पदार्थ रोग उत्पन्न करते ही हैं। आयु के कारण भी रोग उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ज्यों- ज्यों उम्र बढती जाती है, त्यो -त्यो  शरीर यह निर्ल होता जाता है। और उसकी रोग निरोधक शक्ति क्षीण होती जाती है।

अग्नि से साधारण अग्नि और जठराग्नि दोनों का बोध होता है। आग से शरीर जल जाता है और जठराग्नि 

यानि पाचन शक्ति के मंद होने पर अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

बिजली को भी वैदिक विज्ञान में अग्नि का ही एक रूप माना गया है ।चोट लगने से घाव का होना या शरीर के किसी अंग का विकल होना, तो रोज ही होते हैं ।
घाव के सड़ने से तो मनुष्य को भयंकर पीड़ा होती है।

चरक संहिता करती है कि इन रोगों का कारण प्रज्ञापराध अर्थात मनुष्य के अशुभ कर्म होते हैं ।
यह अशुभ कर्म तब होते हैं ,जब मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य मूर्खतावश आहार -बिहार के नियमों का पालन नहीं करता ,धीरज नहीं रखता और स्वस्थ रहने के नियमों को यथा रोगों से बचने के उपायों को याद नहीं रखता, वह रोगों का शिकार बन जाता है। 

आजकल जो दुर्घटनाएं होती रहती हैं ,वह मनुष्य की बुद्धि तथा धृति के भ्रष्ट होने से ही होती है ।मनुष्य सावधान होकर चले फिरे तो दुर्घटनाओं से बच सकता है ।

मनोविकार----

शोक, भय ,क्रोध ,ईर्ष्या, क्रोध ,मद ,अहंकार, द्वेष आदि जो मनोविकार हैं, वह भी प्रज्ञापराध से उत्पन्न होते हैं
हमारा आयुर्वेद शास्त्र केवल शारीरिक स्वास्थ्य तथा शारीरिक रोगों से ही संबंध नहीं रखता ।वह मानसिक स्वास्थ्य तथा मानसिक विकारों को भी उतना ही महत्व देता है ।

आधुनिक मनोविज्ञान भी मनोविकारों और शरीर पर उनके प्रभावों को मानता है।

 ईर्ष्या ,शोक आदि मनोविकार प्रज्ञापराध से उत्पन्न होते हैं ।इसका अर्थ यह है कि जब मनुष्य बुद्धि भ्रष्ट ,धृति भ्रष्ट अथवा स्मृति भ्रष्ट हो जाता है ,तब उसके मन में ईर्ष्या ,द्वेष ,क्रोध आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं ,
क्योंकि प्रज्ञापराध के कारण मनुष्य  अशुभ कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है ।
हिंसा, झूठ ,चोरी ,बेईमानी ,व्यभिचार आदि अशुभ कर्म है ।जो मनुष्य ऐसे कर्म करता है उसका मन कलुषित हो जाता है।

महर्षि आत्रेय कहते हैं कि प्रज्ञा अपराधों का त्याग ,इंद्रिय संयम ,स्मृति, साधुजनों के आचरण का अनुपालन और देश, काल तथा आत्मा का सम्यक ज्ञान ,इनसे आगंतु रोग रुक जाते हैं ।
इन्हें उत्पन्न ना होने देने का यही मार्ग है ।

आप्त जनों के उपदेशों का ज्ञान और उनके अनुसार आचरण ,इन उपायों से मनुष्य रोगों से बच सकता है, और यदि रोग उत्पन्न भी हो जाए तो उन्हें शांत कर सकता है ।

इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह रोग उत्पन्न होने से पहले ही ऐसे कर्म करें ,जिससे उसका हीत हो।
 अंग्रेजी की कहावत है ---प्रिवेंसन इज बेटर देन क्योर ,अर्थात रोग को रोकना उसके उपचार से बेहतर होता है।
 जो लोग मन वचन और कर्म से पापी ,चुगलखोर ,झगड़ालू मर्मभेदी ,उपहास करने वाले ,लोभी, दूसरों की उन्नति से द्वेष करने वाले अर्थात ईर्ष्यालु ,सठ यानी धूर्त ,दूसरों की निंदा करने वाले ,चपल,शत्रुओं के आश्रय में रहने वाले, दया धर्म का पालन नहीं करने वाले होते हैं, उन नीच लोगों का त्याग करना चाहिए । 
उनके संग नहीं रहना चाहिए ।

इसके विपरीत मनुष्य को ऐसे महापुरुषों का संग करना चाहिए ,जो बुद्धि ,विद्या ,आयु ,शील, स्मृति  ,समाधि यानी एकाग्रता के द्वारा वृद्धों की सेवा करते हो, 
इस सेवा से अपने ज्ञान की वृद्धि करते हो ।मनुष्य के स्वभाव को जानते हो ,दुख रहित ,द्वन्द रहित तथा प्रसन्न मुख हो, शांत हो ,व्रतों का पालन करते हो ,सन्मार्ग का उपदेश देते हो तथा जिनके दर्शन करना और उपदेशों को सुनना पुण्य कारक हो ।

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