Saturday 27 January 2018

Ayurved amrit Sharir swasthya vigyan-Parsanal Higene---

 नेत्र-- 
आंखों के लिए हितकारी सौवीर अंजन (काला सुरमा )का नित्य प्रयोग करना चाहिए। 

आंखों का दूषित जल निकालने के लिए पाचवे तथा आठवें दिन रसोत का प्रयोग करना चाहिए ।
आंखें तेज प्रधान है ।इन्हें कफ से भय रहता है। अर्थात आंखों में कीचड़ आना हानिकारक होता है। 

परंतु रसाजनों (सुरमा और रसौत)का प्रयोग दिन में नहीं करना चाहिए ।

जैसे स्वर्ण आदि धातु तथा अनेक प्रकार की मणियों को साफ करने से वह निर्मल तथा चमकदार हो जाती है, उसी प्रकार रसायनों के प्रयोग से मनुष्य के नेत्र में निर्मल दृष्टि निर्मल आकाश में चंद्रमा की भांति शोभित होती है ।

हमारे देश में और इरान तथा अरब देशों में सुरमें या काजल का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है ।
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माताएं शिशुओं की आंखों में सुरमा काजल लगाती हैं ,और यह चीजें नारी श्रृंगार का भी साधन मानी जाती है ।

आधुनिक नारीयां सुरमा काजल तो नहीं लगाती, लेकिन आंखों को और काली करने के लिए मस्करा नमक रंग का प्रयोग करती हैं ।

डॉक्टर लोग सुरमा -काजल को फायदे की चीज नहीं मानते, बल्कि  नुकसानदायक भी बताते हैं ।

हजारों वर्षों के अनुभवों को यह लोग नकारना चाहते हैं ।

मुझे याद है कि बचपन में आंखें दुखने आती थी तब अफीम फिटकरी और रसोत का लेप पलकों पर लगाया जाता था और आंखों को नीम के पत्ते डालकर औटाएं हुए पानी से धोया जाता था ।यह उपाय आज भी कारगर है, लेकिन एलोपैथिक दवाइयों के चक्कर में लोग इन्हें भूल गए हैं ।

सुरमा या काजल मे औषधियां भी मिलाई जाती हैं, जिनसे आंखों के रोग दूर हो जाते हैं ।

नाक----

प्रतिवर्ष जब आकाश में बादल ना हो अर्थात शरद और बसंत ऋतु में तेल नाक में चढ़ाना चाहिए। 

इस तेल को बनाने की विधि भी  है। नाक में तेल चढ़ाने को नष्य कहा गया है।

जो मनुष्य यथा समय इस तेल का नस्य के लिए प्रयोग करता है, उसकी आंखों नाक तथा कानो की शक्ति छीण नहीं होती।

सिर और दाढ़ी मूंछ के बाल सफेद नहीं होते और ना झड़ते हैं। नस्य कर्म से सिर का दर्द, चेहरे का लकवा, पीनस ,आधासीसी आदि रोग शांत हो जाते हैं ।

इस प्रकार नस्य सप्ताह में तीन बार लेना चाहिए।

हमारे देश में बहुत से लोगों को महीन पीसी हुई तंबाकू भी सुंघने की आदत है, इसे नसवार या हुलास भी कहते हैं ।

दांत ---

प्रतिदिन दोनों समय कसैले तथा तीखे रस प्रधान पेड़ों की डाली की दातुन करने चाहिए ।

पतली डाली को कूटकर कूची जैसी बना लेनी चाहिए और मसूड़ों को आधात से बचाते हुए दातौन करनी चाहिए। 

दो समय का अभिप्राय है--------- सवेरे भोजन से पहले और रात को भोजन के बाद।

करंज ,कनेर ,आक, मालती  तथा इनके समान गुण वाले अन्य पेड़ के दातून दातों के लिए उपयोगी होते हैं।

 सुश्रुत में दातुन के लिए नीम का भी उल्लेख है। वैसे बबूल का दातौन बहुत प्रचलित है ।

दातुन के प्रयोग से जीभ ,दांतों और मुंह के मैल साफ हो जाते हैं ।इससे मुख की दुर्गंध नष्ट होती है तथा मुख का बुरा  स्वाद भी दूर हो जाता है ,जिससे भोजन में रुचि पड़ती है।

आजकल तो दांतो की जगह टूथ-ब्रसो का और मंजन की जगह टूथपेस्टों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। 

और इनके बारे में नाना प्रकार के लुभावने विज्ञापन अखबारों में छपेते रहते हैं ।लोगों को यह पता नहीं कि सब टुथ-ब्रसो का आधार टैल्क यानी बहुत बारीक पिसी सेलम खड़िया होती है।

 सब टूथपेस्ट एक समान होते हैं सिर्फ रंगों का या 1---2 अन्य चीजों का फर्क होता है। खोज करने वालों ने पता लगाया है कि टूथपेस्ट के एक ट्यूब की कुल मिलाकर एक रुपए से ज्यादा लागत नहीं होती, लेकिन पैकिंग, विज्ञापन खर्च, विक्रेताओं के कमीशन और निर्माता के मुनाफे को शामिल करके 10- 12 गुना कीमत हो जाती है ।

मुख -----

मुख को सुगंधित रखने के लिए जायफल, सुपारी, लौंग, कपूर ,छोटी इलायची और पान का पत्ता मिलाकर चबाना चाहिए ।इससे भोजन में रुचि बढती है। जबड़ा पुस्ट होता है और गला साफ होता है ।दांतों की जड़ मजबूत हो जाती हैं ।

पान में चूना और कत्था लगाने का प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ ,किसने की खोज की, और तंबाकू से इसका नाता कैसे जुड़ा यह दिलचस्प शोध का विषय बन सकता है,
 क्योंकि जापान की चाय संस्कृति की तरह हमारे देश में पान संस्कृति का खूब विकास हुआ है। 

पान में अब पिपरमेंट सौंफ और मुलेठी का प्रयोग होता है ।और कुछ लोग तो गुलकंद भी डलवाते हैं ।

इस पान संस्कृति से तंबाकू के जर्दा ,कीमाम ,सुरती ,बगैरह कइ रसायनों का पान के मसालों का और चटनियो का निर्माण हो रहा है। इससे कई उद्योग धंधे चल रहे हैं और पान संस्कृति लाखों लोगों की जीविका का साधन बन गई है।

पान लगाना और उसे पेश करना भी एक कला मानी जाती है। पानदान और पानो की डिबियाऐ इस संस्कृति के अंग हैं ।
कान----

कानों में रोज तेल डालने से कान के रोग नहीं होते ।ऊंचा सुनना या बहरापन (बिल्कुल भी न सुन पाना) भी नहीं होते।

सिर----

सिर में तेल मलने वाले मनुष्य को सिर दर्द नहीं होता, गंजापन नहीं होता और बाल सफेद नहीं होते और ना ही झड़ते हैं। बाल काले और घने हो जाते हैं ,और इनकी जड़े भी मजबूत हो जाती हैं ।

(मामूली तौर पर कानों में कोई भी रोज तेल नहीं डालता बल्कि बहुत लोग तो कभी भी नहीं डालते ।लेकिन कर्ण रोग बहुत कम लोगों को होते हैं ।इसलिए कान में तेल डालना कानों की सफाई का एक उपाय है, जो कर्ण रोगों का प्रतिशोधक है।)।

इसके विपरीत सिर पर या बालों में लगभग सभी लोग तेल मलते हैं ,फिर भी बाल सफेद हो जाते हैं या गिरने लगते हैं। यह भी देखने में आया है कि कई लोगों के बाल जवानी में ही या बचपन में ही सफेद हो जाते हैं और कई बूढ़े लोगों के बाल भी काले बने रहते हैं। 

बुढ़ापे में बालों का सफेद होना तो प्राकृतिक बात है ।इसलिए शरीर में अन्य दोषों के कारण बालों का सफेद होना या गिरना केवल तेल मलने से नहीं रुक सकता फिर भी तेल मलना लाभदायक है ।

हमारे देश में बालों के लिए ज्यादातर सरसों तेल या नारियल के तेल का प्रयोग किया जाता है। आजकल अरंड का तेल भी चल निकला है ।सैकड़ों तरह के सुगंधित तेल भी बिकते हैं। बालों के लिए चमेली का तेल बहुत अच्छा माना जाता था ।सरसों का तेल बहुत गुणकारी होता है ।

तेल मालिश --

जैसे तेल लगाने से घड़ा चिकना हो जाता है ,चमड़ा मुलायम हो जाता है और पहियों की धुरी बिना रगड़ के घूमने लगती है। उसी तरह तेल मलने से मनुष्य का शरीर चिकना कोमल और मजबूत तथा श्रम को सहन करने वाला हो जाता है। 

प्रतिदिन तेल की मालिश करने वाले मनुष्य के शरीर में चोट आदि लगने से ज्यादा तकलीफ नहीं होती और कड़ी मेहनत के बाद थकावट भी कम होती है।

मनुष्य की त्वचा मुलायम हो जाती है ।अंग परिपुष्ट हो जाते हैं और रूप निखर जाता है ।उसके शरीर पर बुढ़ापे के लक्षण बहुत कम प्रकट होते हैं ,अर्थात झुर्रियां नहीं पड़ती ।

पावो पर तेल की मालिश से खुरदरापन और रूखापन दूर हो जाता है ।यह आंखों के लिए भी हितकारी होती है ।इससे गृध्रसी ,साइटिका का निवारण होता है।पाव नहीं फटते और पावो के पुट्ठे मजबूत हो जाते हैं। पावो पर तेल मलने से थकावट भी मिट जाती है ।
स्नान ---

शरीर के परिमार्जन से दुर्गंध ,भारीपन ,थकावट ,खुजली और पसीने से उत्पन्न कुरूपता नष्ट होती है ।
snan karte log

चरक ने परिमार्जन की व्याख्या नहीं की है, किंतु इसका अर्थ केवल स्नान करना नहीं। उबटन लगाकर या शरीर को रगड़कर मेल उतारना भी परिमार्जन है। स्नान से शरीर पवित्र यानी शुद्ध हो जाता है। यह वीर्यवर्धक तथा आरोग्यवर्धक होता है ।इससे थकावट पसीना और मैल दूर होते हैं। शरीर पुष्ट होता है तथा ओज बढता है ।

सुश्रुत ने स्नान के लाभ के इन अलावा और भी लाभ बताए हैं-

स्नान से नींद और गर्मी दूर होती है ।सारी इंद्रियां मजबूत हो जाती हैं ।रोग निवारण होता है ।
रक्त शुद्ध होता है, और पाचन शक्ति बढ़ती है ।

आंखों ,कानो ,दांतो ,नाक तथा शरीर के परिमारजन की क्रियाएं सामूहिक रुप में हमारे शास्त्रों में वर्णित शौच कर्म के अंतर्गत है। जिसे धर्म का एक लक्षण भी कहा गया है ।

नित्य स्नान करना भारतीय संस्कृति का एक अंग है। दूसरे देशों के लोग भी स्नान करते हैं ,परंतु इसे नित्य कर्म नहीं माना जाता ।

जंगली जातियां तथा पृथ्वी के बहुत ठंडे प्रदेशों में बसने वाली जातियां स्नान नहीं करती ।जैन साधु साध्वियों के लिए भी स्नान का निषेध है। दातौन करना भी मना है ।

स्नान करने के कई तरीके हैं ।ज्यादातर लोग किसी बर्तन से शरीर पर पानी डालकर स्नान करते हैं। जहां पानी के नल है, वहां टोटी के नीचे बैठ कर स्नान करते हैं ।

कुछ लोग 12 महीने ठंड पानी से और कुछ गर्म पानी से स्नान करते हैं। ज्यादातर लोग गर्मी में ठंडे पानी से और सर्दी में गर्म पानी से नहाते हैं ।

पश्चिमी देशों में टब में बैठकर स्नान करने का रिवाज है। जिसे हमारे देश के लोगों ने भी अपना लिया है। 

शरीर का मैल और चिकनाई छुड़ाने के लिए हमारे देश में पहले मुल्तानी मिट्टी और बेसन का प्रयोग होता था। नहाने का साबुन हमारे देश में नहीं बनता था ।

यह पश्चिम की देन है ,और इसके उपयोग को सभ्यता का माप समझा जाता था। अब तो हमारे देश में बिरला ही कोई घर होगा ,जिसमें साबुन का उपयोग ना होता हो ।साबुन के बारे में तरह तरह के साबुनों के निर्माताओं ने बहुत भ्रांतियां फैला दी हैं ।ऐसे दावे किए जाते हैं कि अमुक साबुन से चमड़ी के रोग दूर हो जाते हैं ,या रंग गोरा हो जाता है।

विज्ञापन बाजी के चक्कर में पड़कर स्त्रियां महंगे साबुन लगाती हैं ।

वास्तव में जैसा मैंने टूथब्रशो के बारे में लिखा था ,सारे साबुन एक समान होते हैं ।सिर्फ रंग और सुगंध का फर्क होता है ।अलबत्ता चंदन के तेल वाले या नीम के तेल से बने साबुन हितकारी होते हैं ।

साबुन के प्रयोग से त्वचा मुलायम या गोरी होने की वजह रूखी हो जाती है ।मुल्तानी मिट्टी और बेसन का प्रयोग भी कुछ स्त्रियों करती हैं।

 वस्त्र ---

निर्मल वस्त्र धारण करने से सौंदर्य यश तथा आयु में वृद्धि होती है ।दरिद्रता दूर होती है, मन प्रसन्न रहता है ,शरीर की शोभा बढ़ती है ,और मनुष्य सभा समाज में प्रशंसा का पात्र होता है ।

वस्त्रों के लिए चरक ने निर्मल शब्द का प्रयोग किया है। इसका अर्थ यह है कि पहनने के वस्त्र साफ-सुथरे होने चाहिए। मैले-कुचैले नहीं ।

निर्मलता का वस्त्र की कीमत से कोई संबंध नहीं ।मामूली सस्ते कपड़ों के वस्त्र भी निर्मल हो सकते हैं, और कीमती कपड़ों के वस्त्र भी मैले हो सकते हैं ।
मैले वस्त्र गंदे लगते हैं ,और उनसे पसीने की दुर्गंध भी आती है। मैले कुचैले वस्त्र पहने वाले के पास कोई भी सफाई पसंद आदमी बैठना पसंद नहीं करता। मैले वस्र से शरीर भी मैला रहता है। जिससे त्वचा के रोग भी हो जाते हैं ।

जो वस्त्र शरीर से लगा रहता है जैसे बनियान या जांघिया उसे तो रोज धोना चाहिए। 

हमारे देश में बहुत लोग ऐसे गरीब हैं-- कि उनके पास पहनने को सिर्फ एक ही वस्त्र होता है।

गांधी जी ने एक ही वस्त्र धारण करने का ब्रत इसी गरीबी से द्रवित हो कर लिया था ।

कहते हैं कि एक बार गांधीजी उड़ीसा में एक गरीब बुढ़िया की झोपड़ी में गए थे ।वह बुड़िया बहुत मैली साड़ी पहनी थी। गांधी जी ने उससे पूछा कि वह साड़ी को धोती क्यों नहीं ।उसने जवाब दिया मेरे पास पहनने को दूसरी साड़ी नहीं की एक को उतारकर धो लूं।

बहुत से गरीब लोग फटे कपड़े पहने फिरते है। इन्हें निर्मलवस्त्र पहनने का उपदेश देना एक प्रकार का उपहास है, और जिस समाज में ऐसे लोग हैं ,उसे सभ्य नहीं कह सकते ।

चरकसंहिता कहता है कि-- चंदन ,केसर आदि सुगंधित द्रव्यों के सेवन से ,सुगंधित पुष्पों की माला धारण करने से आयु सौंदर्य पुष्टि तथा बल की वृद्धि होती है, और मन भी प्रसन्न रहता है।

इसी प्रकार रत्न आभूषण धारण करने से सौभाग्य अथवा धन मंगल आयु तथा शोभा की वृद्धि होती है ।दुर्व्यसन नष्ट होते हैं ,मन प्रसन्न रहता है ,और सौंदर्य तथा ओज बढ़ते हैं ।

सुगंधित द्रव्यों का लेपन और सोने के गहने पहनना धनवानो के लिए ही संभव है ।सो चरक का यह विधान सर्वसाधारण पर लागू नहीं हो सकता ।

केसर के तो दर्शन ही दुर्लभ है, और सोने की कीमत आसमान छू रही है। यह चीजें तो उन्हीं लोगों के लिए सुलभ है ।जिनके पास दो नंबर का पैसा है ।आभूषण से शरीर की शोभा तो बन सकती है परंतु इनसे धन आयु तथा ओज कैसे बढ़ते हैं। यह समझ में नहीं आता ।स्त्रियां आभूषण ज्यादातर दिखाने के लिए और अमीरी की शान जताने के लिए करती हैं।

 पाव तथा मल मार्ग ,नाक, कान ,गला ,उपस्थि को प्रतिदिन धोने से बुद्धि पवित्रता तथा आयु की वृद्धि होती है। दरिद्रता और कलयुग के रोग दूर होते हैं ।

पाव और मल मार्गों को धोना इसलिए जरूरी है कि इन के गंदे रहने से बहुत सी बीमारियां पैदा हो सकती हैं ।पांव जमीन पर पड़ते हैं ,सो उन पर जमीन की गंदी मिट्टी कीचड़ या धूल चिपक जाती है ।इन में रोगाणुओं या रोगों के कीड़े भी रहते हैं। जो पांव पर लग जाते हैं ।
इसलिए पांव जब कभी गंदे हो जाए तभी उन्हें धोना चाहिए। और रात को पाव तो धो कर ही सोना चाहिए ।

नाक कान और उपस्थि भी साफ रहनी चाहिए ,क्योंकि मैल जमा होने से रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
 केश ,दाढ़ी ,मूंछ और नखो को काटने से बल तथा आयु की वृद्धि होती है ।मनुष्य पवित्र तथा सुंदर रूपववाला हो जाता है। मन प्रसन्न रहता है ,

सुश्रुत ने बालों में कंघा या कंघी करना भी बताया है।इससे बालों पर जमी धूल और मैल साफ हो जाते हैं ,और जुए निकल जाती हैं। कंघी को केशप्रशाधनी कहा है।

इस्लाम में और सिख संप्रदाय में सिर दाढ़ी मूंछ के बाल कटवाना मना है ।

साधु सन्यासी लंबी लंबी जटा रखते हैं ,और दाढ़ी मूछ भी नहीं मुंडवाते। वैसे भी बहुत लोग लंबे बाल रखते हैं और दाढ़ी मूछ भी रखते हैं ,लेकिन लंबे बाल और दाढ़ी मूछ की सफाई जरूरी है ।

आजकल तो लंबे बालों का और दाढ़ी मूछ की सफाई का फैशन है ।
कहते हैं ---मूंछ मुंडवाना का फैशन हमारे देश में लार्ड कर्जन की नकल पर चला था ।सो इसे कर्जन फैशन कहा जाता है ।उस जमाने में इस फैशन का बहुत मजाक उड़ाया जाता था ।

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