Wednesday 24 January 2018

Ayurved ki prachinata paribhasa mahatv----

 चरक संहिता में वर्णन है कि सबसे पहले दक्ष प्रजापति ने ब्रह्मा से आयुर्वेद नामक शास्त्र ग्रहण किया। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनी कुमारों से इंद्र ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया

वैदिक काल में एक समय ऐसा आया जब सात्विक जीवन व्यतीत करने वालों में भी रोग उत्पन्न होने लगे। तब अनेक महर्षि हिमालय पर्वत के प्रदेश में एकत्र हुए। इन ऋषियों के नाम चरक संहिता में कुछ इस प्रकार गिनाए गए हैं

अंगिरा ,जमदग्नि, वशिष्ठ ,भृगु ,आत्रेय ,गौतम ,सांख्य ,पुलक्ष्य ,नारद ,असित ,अगस्त्य ,वामदेव ,मार्कंडेय आश्वलायन ,पारीक्षि, भिक्षु ,आत्रेय, भारद्वाज, कपिंजल ,विश्वामित्र ,आश्मरथ्य ,भार्गव ,च्यवन ,अभिजीत गार्ग्य ,शांडिल्य ,कौंडिन्य ,वाक्षि ,देवल ,गालव ,सांकृत्य ,वेजवापि, बादरामायण ,बडिश ,शरलोमा ,कांकायन कात्यायन ,कैकशेय ,धौम्य ,काश्यप ,मारीच ,कश्यप ,शर्कराक्ष, हिरण्याक्क्ष ,लोकाक्ष ,पैंगि ,शौलक ,शाकिनेय मैत्रेय ,मैमयातन ,वैखानस ,बलरिवल्य आदि।

इन सब मुनियों ने दिव्य दृष्टि से देखा कि रोग निवारण के उपाय जानने के लिए इन्दृ केपास जाना चाहिए। अन्त मे सब ने मिलकर निश्चय किया कि इस कार्य के लिए महर्षि भरद्वाज को इन्द्र के पास भेजा जाय। तदनुसार ऋषि भारद्वाज इंद्र के यहां गया और इंद्र ने उसे संक्षेप में आयुर्वेद का सार बताएं

इंद्र ने आयुर्वेद के तीन सुत्रोः का उपदेश दियाः स्वस्थ तथा रोगी होने के क्या कारण है, स्वास्थ्य तथा रोग के क्या लक्षण है और स्वस्थ रहने तथा रोग निवारण के क्या उपाय तथा औषधियां हैं

भारद्वाज ने आयुर्वेद का ज्ञान सब ऋषियों को दिया और पुनर्वसु आत्रेय को पढ़ाया ।अत्रेय ने अपने छह शिष्यों  को आयुर्वेद पढ़ाया
इन शिष्यों के नाम हैं--- 
अग्निवेश भेल जतूकर्ण पराशर हारित तथा क्षारपाणि। इन क्षहो शिष्यों ने अपने अपने नामों से आयुर्वेद संहिताए रचीं और अपने गुरु को सुनायीं।

अंत में सब ऋषि यों ने अग्निवेश संहिता को श्रेष्ठ बताया और उसका समादर किया

अग्निवेश संहिता गुरु शिष्य संवाद के रूप में थी ।यह ग्रंथ मूल रूप में नहीं मिलता ।चरक के समय में शायद यह ग्रंथ उपलब्ध था ।सो चरक मुनि ने देश काल और परिस्थिति के अनुसार इसका संस्कार किया और इसका नाम चरक  संहिता पड़ गया
बाद में द्रढबल ने चरक संहिता का प्रति संस्कार किया और वही ग्रंथ आजकल चरक संहिता के नाम से जाना जाता है।
 पुनर्वसु आत्रेय का नाम महाभारत में भी आया है और इसे आयुर्वेद का प्रवर्तक कहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि आयुर्वेद की परंपरा हजारों वर्षों से चली रही थी।

चरक मुनि कब हुआ इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता ।महाभारत काल के बाद ही होना संभव है। एक अनुश्रुति के अनुसार योग दर्शन का प्रणेता पतंजलि चरक संहिता का रचयिता है

आयुर्वेद की प्राचीनता -------–-------

चरक और सुश्रुत की संहिताओ में मनुष्य शरीर में उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के रोगों के अलावा मानसिक तथा आध्यात्मिक विकारों का भी वर्णन है। 
रोगों के निरोध निवारण तथा उपचार के लिए हजारों फलों वनस्पतियों औषधीय  लता गुल्मो खनिजों मान्सो दुग्धो और मूत्रों तक्र के गुण और दोषों तथा स्वभावों का सांगोपांग विवेचन है
शल्यक्रिया तथा उनके उपयोग के उपकरणों का वर्णन है।  इसके अलावा शरीर रचना विज्ञान एनाटॉमी और शरीर क्रिया विज्ञान फिजियोलॉजी का भी विशद विवेचन है

प्राचीन काल में तो बड़े-बड़े औषधालय तथा चिकित्सालय थे और ना औषधियों की परीक्षा के लिए प्रयोगशालाएं थी। वैद्य लोग स्थानीय वनस्पतियो जड़ी बूटियों आदि से रोगियों का इलाज करते थे ।ऐसी हालत में हजारों रोगों और भैंषजो का अनुभव कैसे प्राप्त हुआ होगा ,
यह प्रश्न असमंजस में डाल देता है ।इतने रोगों के उपचार के उपाय निश्चित करने में और उनके लिए भेषजो की परीक्षा करने में लाखों नहीं तो हजारों वर्षों का समय अवश्य लगा होगा ,

और फिर चारों ओर बिखरे हुए उस ज्ञान को एकत्र करने में तथा समन्वित करने में भी बहुत समय लगा होगा ।कितने चिकित्सकों तथा वनस्पति विज्ञानियों का इस में योगदान रहा होगा ।इसकी भी केवल कल्पना ही की जा सकती है

आज के युग में भी किसी नई दवा के प्रभाव गुण तथा कुप्रभाव के अनुसंधान में बरसों लग जाते हैं और सारी परीक्षाओ में सफल होने के बाद ही उसका प्रयोग किया जाता है
इसके लिए देश विदेशों में अनेक अनुसंधान केंद्र कार्य कर रहे हैं ,और उन पर करोड़ों रुपए भी खर्च हो रहे हैं।

इन बातों को देखते हुए आश्चर्य होता है कि भारत के ऋषि मुनियों ने बिना किसी साधनों के ऐसे प्रमाणभूत अनुभव कैसे प्राप्त किए।

इसके बारे में एक तर्क यह दिया जाता है कि प्राचीन काल के ऋषि मुनियों ने योग साधना के द्वारा प्राप्त 

ऋतंभरा प्रज्ञा से सारा ज्ञान प्राप्त किया ।ब्रह्मा को तो सृष्टिकर्ता माना ही गया है। इंद्र देव राज है और अश्विनी कुमार वधु देवताओं के वैद्य हैं ।इनकी आराधना से तथा इनके (संयम धारणा ध्यान समाधि) से ऋषि यों को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई होगी।

 जो भी हो आयुर्वेद के आर्ष ग्रंथ आज भी उतने ही प्रमाणिक हैं ,जितने प्राचीन काल में थे ।और हमारे आयुर्वेद की मान्यताओं को ,सिद्धांतों को और उस में वर्णित अनेक औषधियों के गुणों को आज का आयुर्विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है
आयुर्वेदिक औषधियों पर विदेशों में अनेक अनुसंधान हो रहे हैं।

आयुर्वेद की परिभाषा-----

चरक संहिता में आयुर्वेद के अवतरण का जो क्रम वर्णन किया गया है ,वह सुश्रुत संहिता में वर्णित क्रम से  कुछ भिन्न है।

सुश्रुत संहिता के अनुसार सबसे पहले ब्रह्मा ने 100000 श्लोकों का आयुर्वेद शास्त्र रचा। इसमें 1000 अध्याय थे। ब्रह्मा ने यह सास्त्र प्रजापति को पढाया। प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को पढ़ाया ,
अश्विनीकुमारों ने इंद्र को पढ़ाया,इन्द्र ने धन्वंतरि को पढ़ाया और अंत में सुश्रुत ने धन्वंतरि से सुनकर संहिता की रचना की।
 ब्रह्मा के रचे आयुर्वेद शास्त्र में आठ भाग थे ,और इन्हें तंत्र नाम दिया गया था। 
इन 8 तंत्रों के नाम इस प्रकार हैं--- 
शल्य तंत्र, शालाक्य तंत्र, काय चिकित्सा तंत्र, भूत विद्या तंत्र, कौमारभृत्य तंत्र ,अगद तंत्र ,रसायन तंत्र तथा वाजीकरण तंत्र
इसी को अष्टांग आयुर्वेद कहते हैं

इस अष्टांग आयुर्वेद में देहत्व, शरीर विज्ञान, शल्यक्रिया, भेषजो तथा द्रव्यो के गुण ,रोगों की चिकित्सा तथा धात्री विद्या सम्मिलित है ।इसके अलावा सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी) ,निरोधी चिकित्सा (एलोपैथी) ,तथा जल चिकित्सा(हाइड्रोपैथी) आदि आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के विधान भी है

चरक के अनुसार जिस शास्त्र में हितकारी और अहितकारी सुखमय, दुखमय, आयु तथा आयु के लिए हितकर और अहितकर द्रव्य ,गुण ,कर्म ,आयु का प्रमाण तथा लक्षणों द्वारा  आयु का वर्णन होता है उसका नाम आयुर्वेद है।

सुश्रुत के अनुसार जिसमें या जिसके द्वारा आयु प्राप्त हो, आयु जानी जाती हो ,उसे आयुर्वेद कहते हैं
संस्कृत साहित्य में आयु (आयुस्) शब्द का प्रयोग जीवन की अवधि के लिए किया जाता है, जो प्रारब्ध के अनुसार निश्चित मानी जाती है

सौ वर्ष की आयु पूर्णआयु मानी जाती है।
 एक वेद मंत्र में कहा है -(जीवेम शरदः शतम )अर्थात हम सौ वर्ष तक जिए

ईश उपनिषद में कहा है --कुर्वन्नेवेह कर्माणि जीजीविषेच्छतम् समाः) अर्थात कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करो

आयुर्वेद का प्रयोजन यही है कि जितने वर्ष की मनुष्य की आयु हो उतने वर्ष तक वह निरोग रहे। क्योंकि (धर्मार्थ काम मोक्षाणाम आरोग्यम मूलमुक्तमम्) अर्थात धर्म अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति का उत्तम उपाय आरोग्य  है।
रोगी मनुष्य  इन चार पुरुषार्थों को सिद्ध नहीं कर सकता।

आयुर्वेद का महत्व------
 शरीर इंद्रिय मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं। धारी जीवित नृत्यग तथा अनुबंध भी इस के पर्यायवाची हैं। इस आयु का वेद अर्थात आयुर्वेद का ज्ञान  परम पुण्यमय है ।ऐसा वेदग्यो का मत है

यह शास्त्र मनुष्यो के लिए इस लोक में तथा परलोक में हितकर है ,अर्थात अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को देने वाला है ।अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्ध ही धर्म है

तात्पर्य  यह है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाला वैद्य दूसरों को आरोग्य प्रदान करके और रोगों का कष्ट निवारण करके पुण्य का भागी होता है ।इसी प्रकार स्वयं भी निरोग रहता हुआ चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है।

 मन आत्मा तथा शरीर यह तीनों त्रिदंड अर्थात तीन पायों के समान है ।तिपाई की एक टांग भी टूट जाए ,तो वह खड़ी नहीं रह सकती ।इसलिए इन तीनों के सहयोग से ही लोक की स्थिति है ,और इस लोक में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है

लोक शब्द से चेतन प्राणियों का ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए ,क्योंकि  अचेतन पदार्थों में मन तथा आत्मा का अभाव होता है ।केवल शरीर होता है ।मन आत्मा तथा शरीर एक दूसरे के पूरक हैं ,और तीनों मिलकर सारी क्रियाओं का संपादन करते हैं

वनस्पति वर्ग भी चेतन प्राणियों की श्रेणी में आते हैं ।हमारे देश के प्रख्यात वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने सबसे पहले प्रयोगों के माध्यम से सिद्ध किया था कि वनस्पति वर्ग में भी चेतना होती है
जैन आगमों में इन्हें एकेंद्रिय जीव माना गया है।

चरक संहिता में रस चिकित्सा (धातुओं की भस्म से चिकित्सा) तथा रोग निदान के लिए नाड़ी -परीक्षा का उल्लेख नहीं मिलता। इससे पता लगता है कि यह प्रणालियां बाद में विकसित हुई है

नौ द्रव्य -----
अग्नि जल आकाश वायु आत्मा पृथ्वी मन काल दिशा यह सभी नौ द्रव्य हैं।
आकाश का गुण शब्द है, वायु का गुण स्पर्श है, अग्नि का रूप है, जल का रस है ,तथा पृथ्वी का गंध है सुख-दुख, इच्छा द्वेश आदि मन के गुण हैं ।संयोग विभाग आदि काल के गुण हैं। संख्या परिमाण  दिशा के गुण है।
 गुणों का उल्लेख न्यायशास्त्र के आधार पर किया गया है। इसका ज्ञान चिकित्सा के लिए उपयोगी माना गया है।



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