शरीर तथा मन दोनों ही रोगों के आश्रय माने गए हैं
कोढ, खुजली ,फोड़े- फुंसी ,घाव शरीर के अंगों में पिड़ा, उदर- रोग ,हृदय रोग ,आंख ,कान ,गले आदि के रोग तथा अन्य अनेक रोगों का आश्रय शरीर होता है------
अर्थात-
यह शारीरिक रोग हैं ।
काम ,क्रोध ,उन्माद आदि मन के आश्रित है ,अर्थात मानसिक रोग हैं ।
पिछली शताब्दी में मनोविज्ञान पर जो शोध अनुसंधान तथा प्रयोग हुए हैं ,उन के आधार पर आधुनिक आयुर्विज्ञान भी मानसिक रोगों को मानने लगा है ।
बल्कि अब तो यह भी माना जाने लगा है कि शरीर के कई रोग भी मानसिक उत्तेजना ,तनावो, चिंताओं आदि से उत्पन्न होते हैं।
आजकल कैंसर ,ह्रदय रोग ,उदर रोग तथा अन्य रोगों का कारण मानसिक भी माना जाने लगा है।
यह आधुनिक सभ्यता के रोग है। जिसमें मनुष्य हर समय चिंताओं, भावनाओं ,निराशाओं आदि से घिरा रहता है।
जिनका प्रभाव उसकी स्नायु तंत्र पर पड़ता है ,और शरीर को रोग ग्रस्त कर देता है। इन्हीं प्रयोगों के आधार पर मनोचिकित्सा प्रणाली (साइकोथेरेपी )का विकास हुआ है ।
मनोविश्लेषण विज्ञान (साइकोएनालिसिस तथा साइकिएट्री) के प्रयोग से मनुष्य के अवचेतन मानस मे छिपे भावो संस्कारों का विश्लेषण करके उचित परामर्श दिया जाता है।
पश्चिमी देशों में अमेरिका में यह चिकित्सा प्रणाली बहुत प्रचलित तथा लोकप्रिय हो रही है ।क्योंकि इससे अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं ।शरीर के कुछ रोगों का भी मन पर असर पड़ता है ।जो रोग कष्टदायक होते हैं ,शरीर को बहुत पीड़ा देते हैं ।उनका मन पर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि मन दुखी हो जाता है। कभी कभी निराश भी हो जाता है।
तात्पर्य है कि जो तथ्य आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों के बाद पश्चिम के चिकित्सा शास्तीयो को विदित हुआ है ,उसका ज्ञान हमारे आचार्यों को हजारों वर्ष पहले ही हो गया था ।सो मनोचिकित्सा भी आयुर्वेद का एक अंग है ।
आयुर्वेद में तो दैव अर्थात प्रारब्ध औरग्रह नक्षत्रों के प्रभावों को भी रोगों का हेतु माना गया है ।
शारीरिक तथा मानसिक दोष---–-------
वायु ,पित्त कारक तथा कफ यह तीन शरीर के दोष हैं ,और रज तथा तम यह दो मन के दोष हैं ।
पहले बताया जा चुका है कि शरीर तथा मन रोगों के आश्रय है।
शरीर तथा मन दोनों स्वस्थ हो तो उसे आरोग्य कहते हैं।
बायु पित्त और कफ जम साम्यावस्था में रहते हैं तब आरोग्य रहता है ।
इन तीनों में से कोई भी कुपित या दूषित हो जाए तो रोग उत्पन्न हो जाता है ।
इनके दूषित होने पर ही रोगों की उत्पत्ति होती है ,इसलिए इन्हें दोष कहा गया है ।
अन्यथा यह तीनों शरीर में विद्यमान रहते हैं।
नाड़ी परीक्षा से रोगों का निदान इन्हीं तीनों दोषो के आधार पर किया जाता है।
भारतीय दर्शन शास्त्रों में 3 गुण माने गए हैं -सत्व, रज और तम ।
सत्व गुण और अविकारी होता है ,अर्थात वह कभी दूषित नहीं होता।
प्रलय काल में इन तीनों गुणों की साम्यावस्था रहती है।
रजोगुण और तमोगुण मानसिक रोगों के हेतु होते हैं।
गीता में कहा गया है -----
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भव, अर्थात काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न होते हैं ।काम और क्रोध से मन में विकार पैदा हो जाते हैं और मनुष्य मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है ।
कई आचार्य रक्त दोष को भी रोगों का हेतु मानते हैं। निरोग मनुष्य का रक्त शुद्ध होता है ।
रक्त के दूषित होने से मनुष्य रोगी हो जाता है ।इस मत का खंडन इस तर्क से किया जाता है कि रक्त अपने आप दूषित नहीं होता ।
वात पित्त और कफ के दूषित होने से ही रक्त भी दूषित हो जाता है ।
बात पित्त तथा कफ इन तीनों का नाम धातु भी है, क्योंकि यह शरीर को धारण करते हैं ।
शरीर दोष अर्थात व्याधियां दैव व्यापाश्रय तथा युक्ति व्यापाश्रय उपायों से शांत होती है।
काम ,क्रोध, लोभ ,मोह ,राग, द्वेष आदि मानस व्यांधिया, ज्ञान विज्ञान ,धैर्य स्मृति तथा समाधि द्वारा शांत होती हैं ।
दैव अर्थात प्रारब्ध, प्राकृतिक प्रकोप अथवा ग्रह नक्षत्रों के प्रभावो से उत्पन्न ब्याधियां यग्य, मंत्र ,मंगल कर्मो तथा सदाचार से शांत होती हैं ।
इसी को दैव व्यापाश्रय कहा है ।
शारीरिक व्याधियां युक्ति व्यापाश्र चिकित्सा से अर्थात रोग निदान के बाद आवश्यक औषधियों के प्रयोग से शांत होती हैं
कोढ, खुजली ,फोड़े- फुंसी ,घाव शरीर के अंगों में पिड़ा, उदर- रोग ,हृदय रोग ,आंख ,कान ,गले आदि के रोग तथा अन्य अनेक रोगों का आश्रय शरीर होता है------
अर्थात-
यह शारीरिक रोग हैं ।
काम ,क्रोध ,उन्माद आदि मन के आश्रित है ,अर्थात मानसिक रोग हैं ।
पिछली शताब्दी में मनोविज्ञान पर जो शोध अनुसंधान तथा प्रयोग हुए हैं ,उन के आधार पर आधुनिक आयुर्विज्ञान भी मानसिक रोगों को मानने लगा है ।
बल्कि अब तो यह भी माना जाने लगा है कि शरीर के कई रोग भी मानसिक उत्तेजना ,तनावो, चिंताओं आदि से उत्पन्न होते हैं।
आजकल कैंसर ,ह्रदय रोग ,उदर रोग तथा अन्य रोगों का कारण मानसिक भी माना जाने लगा है।
यह आधुनिक सभ्यता के रोग है। जिसमें मनुष्य हर समय चिंताओं, भावनाओं ,निराशाओं आदि से घिरा रहता है।
जिनका प्रभाव उसकी स्नायु तंत्र पर पड़ता है ,और शरीर को रोग ग्रस्त कर देता है। इन्हीं प्रयोगों के आधार पर मनोचिकित्सा प्रणाली (साइकोथेरेपी )का विकास हुआ है ।
मनोविश्लेषण विज्ञान (साइकोएनालिसिस तथा साइकिएट्री) के प्रयोग से मनुष्य के अवचेतन मानस मे छिपे भावो संस्कारों का विश्लेषण करके उचित परामर्श दिया जाता है।
पश्चिमी देशों में अमेरिका में यह चिकित्सा प्रणाली बहुत प्रचलित तथा लोकप्रिय हो रही है ।क्योंकि इससे अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं ।शरीर के कुछ रोगों का भी मन पर असर पड़ता है ।जो रोग कष्टदायक होते हैं ,शरीर को बहुत पीड़ा देते हैं ।उनका मन पर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि मन दुखी हो जाता है। कभी कभी निराश भी हो जाता है।
तात्पर्य है कि जो तथ्य आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों के बाद पश्चिम के चिकित्सा शास्तीयो को विदित हुआ है ,उसका ज्ञान हमारे आचार्यों को हजारों वर्ष पहले ही हो गया था ।सो मनोचिकित्सा भी आयुर्वेद का एक अंग है ।
आयुर्वेद में तो दैव अर्थात प्रारब्ध औरग्रह नक्षत्रों के प्रभावों को भी रोगों का हेतु माना गया है ।
शारीरिक तथा मानसिक दोष---–-------
वायु ,पित्त कारक तथा कफ यह तीन शरीर के दोष हैं ,और रज तथा तम यह दो मन के दोष हैं ।
पहले बताया जा चुका है कि शरीर तथा मन रोगों के आश्रय है।
शरीर तथा मन दोनों स्वस्थ हो तो उसे आरोग्य कहते हैं।
बायु पित्त और कफ जम साम्यावस्था में रहते हैं तब आरोग्य रहता है ।
इन तीनों में से कोई भी कुपित या दूषित हो जाए तो रोग उत्पन्न हो जाता है ।
इनके दूषित होने पर ही रोगों की उत्पत्ति होती है ,इसलिए इन्हें दोष कहा गया है ।
अन्यथा यह तीनों शरीर में विद्यमान रहते हैं।
नाड़ी परीक्षा से रोगों का निदान इन्हीं तीनों दोषो के आधार पर किया जाता है।
भारतीय दर्शन शास्त्रों में 3 गुण माने गए हैं -सत्व, रज और तम ।
सत्व गुण और अविकारी होता है ,अर्थात वह कभी दूषित नहीं होता।
प्रलय काल में इन तीनों गुणों की साम्यावस्था रहती है।
रजोगुण और तमोगुण मानसिक रोगों के हेतु होते हैं।
गीता में कहा गया है -----
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भव, अर्थात काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न होते हैं ।काम और क्रोध से मन में विकार पैदा हो जाते हैं और मनुष्य मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है ।
कई आचार्य रक्त दोष को भी रोगों का हेतु मानते हैं। निरोग मनुष्य का रक्त शुद्ध होता है ।
रक्त के दूषित होने से मनुष्य रोगी हो जाता है ।इस मत का खंडन इस तर्क से किया जाता है कि रक्त अपने आप दूषित नहीं होता ।
वात पित्त और कफ के दूषित होने से ही रक्त भी दूषित हो जाता है ।
बात पित्त तथा कफ इन तीनों का नाम धातु भी है, क्योंकि यह शरीर को धारण करते हैं ।
शरीर दोष अर्थात व्याधियां दैव व्यापाश्रय तथा युक्ति व्यापाश्रय उपायों से शांत होती है।
काम ,क्रोध, लोभ ,मोह ,राग, द्वेष आदि मानस व्यांधिया, ज्ञान विज्ञान ,धैर्य स्मृति तथा समाधि द्वारा शांत होती हैं ।
दैव अर्थात प्रारब्ध, प्राकृतिक प्रकोप अथवा ग्रह नक्षत्रों के प्रभावो से उत्पन्न ब्याधियां यग्य, मंत्र ,मंगल कर्मो तथा सदाचार से शांत होती हैं ।
इसी को दैव व्यापाश्रय कहा है ।
शारीरिक व्याधियां युक्ति व्यापाश्र चिकित्सा से अर्थात रोग निदान के बाद आवश्यक औषधियों के प्रयोग से शांत होती हैं
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