यह व्यायाम मात्रा -पूर्वक ही करनी चाहिए ।
मात्रा -पूर्वक का अर्थ यह है कि व्यायाम उतना ही करना चाहिए जितना शरीर के लिए आवश्यक हो ।
ना तो इतना अधिक होना चाहिए कि थकावट पैदा हो जाए और ना इतना कम होना चाहिए कि उसका कोई प्रभाव ही नहीं पड़े।
सुश्रुत में व्यायाम की मात्रा के बारे में कहा है कि---व्यायाम आधे बल से करना चाहिए । आधे बल का लक्षण यह बताया है कि ---व्यायाम से पूरे फेफड़ों से श्वास प्रश्वास होने लगे। बगल ,माथा ,नाक और हाथ पैरों के जोड़ों में पसीना आने लगे और मुंह सूखने लगे, तब बलार्ध जानना चाहिए ।
मात्रा में किए गए व्यायाम से शरीर में हल्कापन और फुर्ती आती है । शरीर से श्रम करने की शक्ति और पाचन शक्ति बढ़ती है। शरीर स्थिर होता है। शरीर के दोषों का नाश होता है।
अति व्यायाम से थकावट और सुस्ती आती है । रस ,रक्त आदि धातुओं का क्षय होता है ,प्यास लगती है ,दमा ,खांसी ,ज्वर ,उल्टीयों की भी संभावना होती है ।
व्यायाम हंसना ,बोलना ,घूमना -फिरना ,मैथुन तथा रात का जागना ,इनका अभ्यास भी हो तो भी बुद्धिमान मनुष्य इनकी मात्रा से अधिक सेवन ना करें।
इन्हें तथा इसी प्रकार के अन्य कार्यों को जो अत्यधिक मात्रा में सेवन करता है ,वह रोगों से ग्रस्त हो जाता है ।
जैसे सिंह हाथी को मारकर उसे खींचकर दूसरी जगह ले जाना चाहता है, तो मर जाता है ।
आजकल लोग व्यायाम नहीं करते ।ज्यादा से ज्यादा यह करते हैं कि सुबह 2--4 किलोमीटर घूम आते हैं।
लेकिन आज का जीवन ऐसा व्यस्त बन गया है कि ज्यादातर लोग किसी भी तरह का व्यायाम तो क्या कोई शारीरिक श्रम भी नहीं करते ।
पिछले जमाने में हर गांव में और हर शहर के हर मोहल्ले में अखाड़े हुआ करते थे ।बच्चे ,किशोर और नौजवान इस अखाड़े में जाते थे और अखाड़े का गुरु उन्हें कसरते करना सिखाता था।
दंड बैठक लगाना, कुश्ती लडना, मुद्गल घुमाना और मलखंभ पर चढ़ना यह कसरते सिखाई भी जाती थी।
अब तो अखाड़े कहीं नाम मात्र को नजर आते हैं। यही कारण है कि लोगों की रोग अवरोधक शक्ति कम होती जा रही है और बीमारियां फैल रही हैं।
पहलवान लोग कुश्तियां लडने के लिए जो हजारों दंड बैठक लगाते हैं ,उसे मात्रा का व्यायाम नहीं कह सकते। इतना व्यायाम करने के लिए भरपूर पौष्टिक खुराक की जरूरत होती है ।पहलवानी 1 शौक है।
योगासन भी एक प्रकार का व्यायाम ही होता है ,जो परंपरागत व्यायाम ना कर सके, उनके लिए तो घूमना ही सबसे बढ़िया व्यायाम है।
व्यायाम के बगैर शरीर पुष्ट नहीं होता। ठीक उसी तरह मन के कार्यों को उचित तरह से संपन्न करने के लिए कुछ ना कुछ मानसिक व्यायाम भी आवश्यक है।
जिस मानव में मानव शरीर की शारीरिक शक्तियों और उसके मन का स्वरूप विकसित न हो तो उसे पूर्ण मनुष्य नहीं कहा जा सकता।
क्या आपके मन में नकारात्मक और अशालीन विचार उत्पन्न होते हैं ,ऐसे विचारों को दूर करने के लिए अंतःकरण शुद्ध करें ,
मन का एक दोष उसका अत्यधिक चंचल होना है, मन, रंग -बिरंगी तितली की भाति है ,उसका एक फूल से दूसरे फूल तक मंडराना गलत है ।
कोई विशेष विचार भावना को ले लीजिए, वह विचार या भावना बड़े ही सुस्क क्यों न हो, उस पर मन की समग्र वृक्तियों को एकाग्र कर दो, मन कुछ समय उपरांत भागेगा ।
आप संयम द्वारा उसे बाधे रहिए विचलित ना होईये । इस क्रिया को विभिन्न वस्तुओं विचारों और भावनाओं के संदर्भ में लागू करने पर मन में स्थिरता व दृढताआती है।
मनन ही मन का सर्वश्रेष्ठ व्यायाम है ।
आप जिस बात को ले उसी में कुछ समय के लिए जुट जाएं ।आप सारे दिन किस प्रकार के विचारों का चिंतन करते हैं, किन किन विभिन्न बृत्तीयो व भावनाओं में दिन गुजारते हैं ,अपने मन की दृष्टा बनकर पूर्ण परीक्षा करें ,
इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि मन में शुभ विचारों के उत्पन्न होने पर द्वेष, घृणा आदि ईर्ष्या नकारात्मक विचार उत्पन्न नहीं होते ,
जो मनुष्य अपने मन में नकारात्मक विचारों को स्थान देता है ,उसके व्यक्तित्व में ही नकारात्मक बातों का समावेश हो जाता है ।
मन को निरोग बनाने के लिए ईश्वर पर आस्था रखें और सकारात्मक विचारों को मन में जगा दे ,
इस बात को महसूस करें कि आपके मन का प्र अणु ईश्वरीय तत्व से अनुप्राणित है। अंतर्मन में ईश्वर की अनुभूति करें ,
सच तो यह है कि मन को एकाग्र किए बगैर किसी प्रकार का अभ्यास उत्तम विधान से संपन्न नहीं होता।
मन या साधना के समय अगर मन को दृढ़ता से एकाग्र न किया जाए तो उसका फल प्राप्त ही नहीं होता।
अशुभ चिंतन मानसिक दुर्बलता का प्रतीक है। इस से मन की कार्य करने वाली शक्तियां विनष्ट होती हैं ।
मनुष्य का उत्साह क्षीण होती है ,आशावादिता नष्ट होती है और वह कोई भी उत्कृष्ट कार्य संपन्न नहीं कर पाता ।
आयुर्वेद के यह एक मूल सिद्धांत है।
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